Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 55
________________ ५१ समझ कर केवल रटीहुई पूजा या पाठ आदि के द्वारा ( जिनके मतलब तक का मनन करने की इच्छा नहीं की जाती) भक्तिपूर्वक जलचंदनादि चढ़ाकर पूजा करने मात्र ही में धर्म समझते रहते हैं। ऐसे ("जैनी नाम के धारण करने वाले) मनुष्य क्या कहे जाने के योग्य हो सकते हैं और वे, जिनका अपनी आत्मा की शक्ति ( योग्यता ) में विश्वास तक नहीं है, यदि सांसारिक स्वार्थों के खातिर संसार में भीरु और कायर बन कर जैनधर्म के सर्वोत्कृष्ट मूल सिद्धांत अहिंसा' को कायरता, भीता और भारत के पराधीन होने का कारण, यदि खिताब दूसरों से प्राप्त करवा कर जैनधर्म की अ प्रभावना कराये क्या ही है ? अतः हमें चाहिये कि नित्साहित करने वाली ( Passimistic ) भावनाओं और पूजा पाठ का कभी विचार तक न करें तथा सर्वदा एसी ही भावनाओ से युक्त पूजा पाठ का चिंतन किया करें जो उत्साहवर्धक (Optimistic ) हो और आत्मबलको विकमित करने वाले हों । इसके उत्तर में संभव है आप यह कहें "कि कारण दो प्रकार का होता है. एक मुख्य दूसरा निमित्त । परमात्मा की अर्हतावस्था की मूर्तियों की पूजा आदि के निमित्त से हमारी आत्म

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