Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 53
________________ कवियों तक को खाली नहीं जान दिया है । चावल आदि दुष्य यहान का उनके मस्तिष्क पर कुछ प्रभाव ई मा पड़ा कि उनक विचार और परिणाम स्वरूप पूजा पाठ आदि उनकी कृतिया, मत्र हिन्दू धर्म के आस्तिक विचारों के रंग में रंग गये । व भक्ति ग्स के प्रभाव में इनन ड्रव गये कि उनको यह तक नयाल नहीं रहा कि जैनधर्म इवर के कांपन को स्वीकार नहीं करना अत: उसमें भक्ति का मामा बहुत माहित है। इसके कुछ उदाहरगा भी दग्विए । एक जैन कवि जिनेन्द्र में प्रार्थना करते है- "नाथ माहि जैस बने वस नाग मोरी करनी कछु न विचारा" आदि-करनी को ही ईश्वर मानन वाले जैन कवि के इस वचन में इश्वर कर्तृत्व का कितना भाष भरा हुआ है । पूजा के अंत में प्रति दिन प्रार्थना की जाती है" सुत्र देना दुख मेटना यही तुम्हारी बान, मोहि गरीव की श्रीमती सुन लीजो भगवान"। शांति पाठ में भी प्रति दिन इच्छा की जाती है-"कृपा तिहारी ऐसी हाय, जामन मरण मिटाया मोय" एक प्रसिद्ध कवि वृन्दावनी अपनी मंकटहग्गा स्तुनि में कहते हैं-"हा दीनबंधु श्रीपति कारमा निधानजी, अब मंग व्यथा क्यों न हर बार क्या लगी . मालिक हा दा जहान के जिनराज आप ही, एको हुनर हमारा कुछ तुम से छुपा नहीं । बजान

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