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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन धर्म और मूर्ति पूजा
~.. अथांत । उपासना रहस्य,
लखक-~___ श्रीयुन विरालालजी सती, काल
Sawal
माक्षसुग्व-चैत्य-दान-परिपूजनाद्यामिकाः क्रिया बहुविधासुभृन्मरणपाडनाहनवः । न्वया ज्वलितकेवलेन नहि दशिताः किंतुता. मयि प्रमतभाक्तभिः त्रयमनुष्ठिताः श्रावकः ।।
-पात्रकार मात्र ।
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प्रकाशकसामनन्द जैन, कारा
"प्रथम बार दिसम्बर सन् १६२०० मुल्य ) १० वीरनि संबन २४५१ प्रति ०१
* हिमनाथ प्रम कोटा,*
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
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कालन
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॥निवदन ॥
जन समाज की प्रचलिने उपामना प्रति अपन उदश्य से अत्यत गिर गई और इसनजारहानियाँ हारही वकि मी सलिपी नहीं है किन्तु फिर भी हम अंधविश्वास और मढ़िवाद के इतन दास बने हुए हैं कि अपनी जान की हीन अवस्था पर दार आंग्न बहाकर उस सुधारने की कोशिस नक नहा करते । लबक ने प्रस्तुत पुस्तक में जैन धर्मानुसार उपामना के स्त्रमा का जिमम हमार विचार सं. किसी भी धर्म के मानने वालों का कोई विरोध नहीं हासकता ).प्रचलित द्रव्यादि आइम्बर पूर्ण प्रजापति के पन में उठाई जाने वाली गुक्रिया का युकि-युक उ तर दत हुए. कितना मुन्दर और माङ्ग पूर्ण विवंचन किया है यह प्रकृत पुस्तक के देखने से ही संबंध रखना है । पाटको म माग मानुरोध निवदन है कि इम पुस्तक को वृय गीर के साथ माद्यंत पढ़न नथा उस पर पूर्ण विचार करने की अवश्य कृपा करे। कंवल विचार करने से ही काम नहीं चलगा! श्रावश्यकता इस बात की है कि हम समाज में प्रचलित इस उपासना पद्धति और इसीप्रकार समय के प्रभाव में अपने धर्म में घुमा दुई दसर्ग गंदी बालों को जो भी हम गुक्ति विरुद्ध मालम पड़ें, अपनी समाज मात्र निकाल फकन के लिए प्रयत्नशील होकर प्रत्यक आवश्यक सुधार का कार्य रूप में परिणत कर दिया।
आशा है सुधार प्रेमी बन्धु अपनी इस जन जाति की होम अशा पर तरस लाकर उस जैन धर्म के सत्य मार्ग पर लगा देने का कटिबद्ध हो जायेंगे।
जाननन्त जन. काश
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सफा
मानव
कृपया पुस्तक पढ्न में प्रथम निम्नलिग्विन अशुडियों को शुद्ध करने :
मफा लाइन अशुद्धि शुद्ध र ४ ६.११.१. आश्रय
जवन जीवन १.
व । अहंना महना १. भगिनः मांगन: .. . मन बचन
यायम गदांगम को पार.. . की नांगो के उस गमान पार देग्यन वाल है
२० . .
: १.
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प्रभाव
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जैन धर्म और मूर्ति पूजा
जैन धर्मानुसार इस विश्व की रचना में दो प्रकार की वस्तुओं का भाग है । एक चेतना लक्षण से युक्त चेतन पदार्थ अर्थात् जीव (आत्मा) है और दूसरा जीव से विरुद्ध लक्षम वाला अचेतन पदार्थ अर्थात् अजीव है। * जीव अनंत हैं अचेतन परमाणुओं का समुदाय है । यह विश्व इन दोनों ही के आपसी मिलाव का फल स्वरूप है । अनंत काल से वह जीव अपने ही परिणामों के द्वारा आकर्षित किये हुये अचेतन पदार्थ के परमाणुओं मे लिप्त हुआ इस संसार में तरह २ के सुख दुःख का अनुभव कर रहा है। इसका कारण यह है कि ज्ञान, सुख सूक्ष्मता आदि गुण ही इस जीव का स्वभाव है ___ * यद्यपि भिन्न रमतवालों ने दृष्टि भेद के कारण इन जीव
और अजीव पदार्थों के भेद तथा और लक्षण मिन्न २ प्रकार के माने हैं किन्नु इस स्थल पर उनमें गहरे घुसने की
आवश्यकता न होने से केवल इतना ही बता देना पर्याप्त है कि इन्हीं जीप और अजीव पदार्थों को सांख्य दर्शन में पुरुष
और प्रकृति कहा है और वेदान्त ने ब्रह्म और माया नाम से व्यपात किया है।
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और अन पदार्थ के साथ संयोग होने से इसके वास्तविक स्वरूप पर परदा पड़ा हुआ है और इसकी विभाव परिणति हो रही हैं अर्थात अनंत ज्ञान के स्थान में कुज्ञान और अल्प ज्ञान, अनंत अतीन्द्रिय सुख के स्थान में क्षणिक सुख और दुःख तथा सूक्ष्मता के स्थान में स्थूलता आई हुई है। ये शरीरादि उपाधियां भी इन अचेतन ( कर्म ) परमाणुओं के ही कार्य हैं । इन्हीं कर्म परमाणुओं ने इसकी समस्त शक्तियों को आच्छादित करके इसको मोह जाल में इतना फँसा रक्खा है कि उन शक्तियों का विकास होना तो दूर रहा उनका स्मरण तक भी इसको नहीं हो पाता। इन संसारी जीवों में से जो जीव अपनी आत्मनिधि की सुधि पाकर और अविरत प्रयत्न करके इस चेतन पदार्थ (कर्म) के आवरण को हटा देते हैं वे 'मुक्त' कहलाते हैं । उस समय उनका अनंत ज्ञान मय असली स्वरूप प्रगट हो जाता है और उनकी सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियां पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं तथा स्वभाव से ही सूक्ष्म होने से ऊर्ध्वगामी होने के कारण इस प्रकार कर्ममुक्त हो जाने पर लोक के सब से ऊंचे भाग में जा निवास करते हैं ।
'जीव की इस परम विशुद्ध अवस्था का नाम ही परमात्मा । इसी के भिन्न २ गुणों और अवस्थाओं की अपेक्षा से अर्हत, जिनेन्द्र, सिद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध, बुद्ध, परंज्योति,
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निरंजन, निर्विकार आदि भिन्न २ नाम हैं। वह परमात्मा परम वीतरागी और शांत स्वरूप है, उसको किसी से राग या द्वेश नहीं है, किसी की स्तुति, भक्ति और पूजा से वह प्रसन्न नहीं होता और न किसी की निन्दा से अप्रसन्न । उसको न तो धनवान, विद्वान और उच्चवर्ण के लोगों से ही प्रेम है और न निर्धन, मूर्ख और नीच जाति के लोगों से, घृणा ।।
सर्वज्ञता ( केवल शान ) की प्राप्ति होने पर जब तक देह का सम्बन्ध बना रहता है तब तक उनको 'अहंत' या जीवन मुक्त' कहते हैं और जव देह का सम्बन्ध भी छूट जाता है नव उनको 'सिद्ध' नाम से भूषिन किया जाता है।
वे परमात्मा अहंतावस्था में सब जीवों को उनकी अात्मा का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय बताते हैं कि किसप्रकार ये जीव कमाँ के शिकंजे में फंसे हुए हैं इनसे छुटकारा पाने के उपाय क्या २ है तथा दुःख से निवृत्ति और सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है *
* जिस प्रकार जीवका कमाँ (अजीव ) के साथ सम्बन्ध होता है और जिस प्रकार उनसे छुटकारा मिलता है उसका वैज्ञानिक वर्णन जैन धर्म इस प्रकार करता है । मन, वचन, काय (शरीर) की चंचलता के निमित्त से प्रात्मा की स्वाभाविक शाक्ति का काम होता है और उस समय उसकी जैसी भी
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शेप श्रात्माएँ (उपरोक्त अवस्था के प्राप्त न होने तक ) घोर बनों से युक्त पर्वतों से वेष्टित स्थान में होकर गुजरने वाले उस यात्री के समान भ्रमण करती रहती हैं जो अंधकार युक्त निशा में अपने रास्ते का ठीक २ पता न लगने से पथ
क्रिया होती है उसी प्रकार के कर्म । अचेतन) परमाणु उसकी तरफ़ श्राकर्षित होते हैं इसको ' श्राश्रध' कहते हैं । तथा वे कर्म कपाय (क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी भावों) के तीव्र या मंद होने की अपेक्षा से कम या अधिक समय के लिये श्रत्मा को बांध लेते हैं, इसको 'बंध' कहते हैं। इस बंधन को तोड़ने के दो उपाय हैं (१) संवर और (२) निर्जरा । 'संघर' से नवीन कर्मों का श्राव नहीं हो पाता है और 'निर्जरा' से पूर्व में सम्बन्ध को प्राप्त कर्मों से छुटकारा मिल जाता है। इसी बात को हिंदू धर्म वाले कह सकत हैं कि संसार प्रवृत्ति (आश्रव) को वैराग्य द्वारा रोक कर सम्यासादि धारण करने से कर्मों का दाय हो जाता है । श्रात्मा के स्वरूप के चितवन तथा चारित्र पालन आदि से 'संवर होता है । शान श्राराधना और ध्यान आदि अंतरंग और बाहय तपस्या से कर्मों की निर्जरा होती है और जब जीव कर्मों ( अचेतन पदार्थ के आवरण) से पूर्ण रूप से छुटकारा पा जाता है तब उस अवस्था को उसकी 'मोक्ष' कहते हैं । कर्म ( अवेतन ) परमाणु आठ प्रकार के होते हैं (१ ज्ञानावरणी, जिनने आत्मा के ज्ञान गुण को ढँक रक्ता है (२) दर्शनावरणी, ओ श्रात्मा के दर्शन गुण को ढँक दें (३) वेदनीय, जो सांसारिक सुख दुःख की सामग्री जोड़कर
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भ्रष्ट होकर अपने लक्ष्य स्थान से बहुत दूर जा पहुँचा है और तरह २ की घोर यातनाओं को भोगना फिर रहा है । अवश्य ही ऐसी अवस्था में जब कि सिंह व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु चारों ओर मुंह फैलाये फिर रहे हैं और उसका जविन भी संशययुक्त दिखाई देरहा है उस समय उस मनुष्य के लिये उस पथप्रदर्शक से बढकर श्रद्धास्पद और आदरणीय
और कौन हो सकता है जो उसको सर्व प्रकार के दुःखों मे बचने का उपाय बताकर उसके लक्ष्यस्थान तक पहुंचने का ठीक २ मार्ग बतादे । ठीक ऐसी ही अवस्था हम संसारी जीवों की भी है। जिन महान आत्माओं ने क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कपायों को वश में करके और अपनी इन्द्रियों का दमन करके, अपनी आत्मा से भिन्न समस्त वस्तुओं से ममत्व ( राग द्वेप ) त्याग दिया है, जो मर्व प्रकार की क्षुधा, तृषा आदि वेदनाओं और सैकड़ों प्रकार के उपसर्गों को सहन करते हुए भी अपने कर्तव्य मार्ग से सुख दुःख का भोग करावें। ४)मोहनीय, जो आत्मा के श्रद्धान
और चारित्र ( शांति) को बिगाड़ें ५) आयु, जो किसी शरीर में आत्मा को रोक रक्खे (६) नाम, जो शरीर की अच्छी बुरी रचना करें (७) गोत्र, जो ऊँच नीच पद प्राप्त करावें और () अंतराय, जो आत्मा के वार्य या लाभ भोग आदि में विघ्न करें।
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विचालित नहीं हुए, जिनने कर्मावरण मे पैदा हुए अज्ञान अंधकार को दूर करके अपनी असली (शुद्ध) अवस्था प्राम करली है और हम असहाय अवस्था में डूबत हुए प्राणियों को सन्चे सुख का मार्ग बनाकर हमारा अत्यंत उपकार किया है नथा जिनने हमारे मामने अपना आदर्श रग्यकर हमारे रास्ते को सुगम बनादिया है ऐसी महान आत्माओं के प्रति हमारे हृदयों में यदि आदर और प्रेम के भाव नहीं हैं, यदि हमारे हृदय उनकी भक्ति में सावित नहीं होरहे हैं और यदि उनको अपना आदर्श और पथप्रदर्शक मानकर उनके गुणों के चितवन में हमारा अनुराग नहीं है तो निस्संदेह कहना पड़ेगा कि मृगतृष्णा में पड़े हुए हम सुख की प्रानि के मार्ग से अभी बहुत दूर चक्कर लगा रहे हैं।
अहंतों की भी ऐसी ही महान आत्माओं में गिनती है और उनके द्वारा जगत का जो असीम उपकार होता है उसक बदले में हम उनके प्रनि जितना आदर और कृतज्ञता प्रदार्शन करें वह सबकुछ तुच्छ है । जो लोग दूसरों के किये हुए उपकार को भुला देते हैं वे कृतनी कहलाते हैं
और वे कभी भी उन्नति नहीं कर सकते, इसलिये ऐसी महान आत्माओं के प्रति आदर और कृतज्ञता प्रदर्शित करना हमारा परम कर्तव्य है।
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हमको यह भी ज्ञात है कि हमारा ध्येय आत्मस्वरुप की प्राप्ति है और वह एकाग्रता के साथ आत्मा के स्वाभाविक गुणों के चितवन * से हो सकती है किन्तु अधिकांश जीव
* मनमें एक ऐसी ज़बरदस्त शक्ति है कि इसको वश में बहुत ही मुश्किल से कर पाते हैं और जिसने मन को जीत लिया है, समझ लीजिये वह सब कुछ करने को समर्थ है। मन को वश में करने की साधना एकाग्रता पूर्वक चितवन के द्वारा उस अपने ध्येय की तरफ़ लगा कर की जाती है। एकाग्रता पूर्वक चितवन का मन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि कालांतर में ध्याता ही ध्येय हो जाता है अर्थात् वह जैसा बनना चाहता है वैसा ही बन जाता है। अतः यह कथन ठीक है कि मनुष्य के भाग्य का निर्माणकर्ता वह स्वयं ही है । वह निरंतर, जैसा मन में विचार करता है, जैसी भावनायें उसके मन में उत्पन्न होती हैं वैसा ही वह स्वयं भी हो जाता है। वह अपन को और अपने सुख दुःख को जब तक जीवन की वाह्य अवस्थाओं
और दूसरे लोगों की कृपा पर अवलम्बित समझता रहता है तभी तक दुखी रहता है और जब यह अनुभव करने लग जाता है कि मैं प्रात्मा हूं, स्वयं अनंत शक्ति का भंडार हूं, अमर हूं, दृढ़ निश्चय के द्वारा प्रत्येक कार्यको करसकताहूं, मैस्वयं जैसा अपने आपको समझता रहता और करता रहता हूं वैसा ही बन जाता हूँ,मैं किसी के आधीन नहीं, किन्तु श्रात्मश्रद्धा और तीव्र इच्छा के द्वारा असंभव को भी संभव कर दिखा सकता
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इस संसार की विषय वासनाओं में इतने फंसे हुए हैं कि गुणी के आश्रय के बिना गुणका उनके विचार तक में आना असंभव है । ऐसी अवस्था में चितवन तो हो ही कैसे सकता है, क्योंकि गुण गुणी वस्तु के आश्रय के विना संसार में कहीं भी नहीं पाया जाता । जैसे उष्णता एक गुण है किन्तु हमको उसका मान उष्ण वस्तुओं के द्वारा ही होसकता है, वस्तुओं से अलहदा उसको हम कहीं भी नहीं पासकते तथा जहां हम उस गुणी वस्तु को देखते या स्मरण करते हैं कि उसके गुण हूं, तब संशय, भय आदि सब जाते रहते हैं और उस की श्रात्मशक्तियाँ विकसित होने लगजाती है। आप अपने आपको जबतक दुखी समझकर दुःख के विचारों में ही लगे रहेंगे तबतक दुःख से बचने के सेंकड़ों उपाय करने पर भी दुखी ही बने रहेंगे और जब दुःख का विचार मनमें से निकाल कर दृढ़ संकल्प के साथ हर जगह सुख ही सुख में अपने आप को देखेंगे तो आपकी दशा में परिवर्तन हो जायगा और आपको अवश्य सुख मिलेगा। इस में कोई शक नहीं कि यदि आपकी इच्छा अनुचित
और घृणित है और आप प्रकृति के प्रतिकूल जारहे हैं तो आप का प्रयास विफल होने की पूर्ण संभावना है परन्तु जबतकश्राप की इच्छा शुद्ध, उचित और प्रकृति के अनुकूल है आप अपने प्रत्येक इच्छित कार्य की सिद्धि एकात्रता पूर्वक चितवन के द्वारा करसकते है।
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का भी हमे तत्काल ही स्मरण होजाना है। इससे यह आशय निकलता है कि अहंत आदि ऐमी महान आत्माएँ हैं जिनमें पात्मा के स्वाभाविक गुण पूर्ण रूप से विकसित होगहैं
और उनके गुणों का ध्यान तथा उनके अलौकिक चरित्र का विचार हमें भी अपनी आत्मा और उसके स्वाभाविक गुणों की याद दिलाता है। इसीलिये वे हमारे श्रादर्श हैं और पासीय गुणों के पूर्ण विकास के लिये उसी श्रादर्श को मामन रम्य कर हम अपने चरित्र का गठन करते हैं। किन्तु अपने आदर्श पुरुष के गुणों में भक्ति और अनुराग का होना स्वाभाविक और आवश्यक है क्योंकि विना अनुराग के कभी किमी गुण की प्राप्ति हो ही नहीं सकती । यह सर्वत्र देखा जाता है कि जो मनुष्य जिस गुण से प्रेम करता है वह उस गुणवाले का भी अवश्य प्रेमपूर्वक आदर सत्कार करता है।
आदर सत्कार रूप इस प्रवृति का नाम ही पूजा और उपासना है। हमार आदर्श होन से ही अर्हनों में हमारी भक्ति है और वही हम में उनके प्रति आदर सत्कार के भाव पैदा करती है। किन्तु क्या इम उपासना का उद्देश्य यह है कि वे इस उपासना के इछुक हैं और हममे प्रसन्न होकर हमारी इच्छाओं को पूर्ण
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करेंगे ? नहीं, वे परम वीतरागी और शांत स्वरूप हैं। उन्होंने काम, क्रोध आदि तथा सर्वप्रकार की इच्छाओं को नाश करदिया है, वे न तो स्तुति से ही प्रसन्न होते हैं और न निन्दा से ही अप्रसन्न । अतएव यह बात अच्छी तरह हृदय में जमा लेनी चाहिये कि जैनधमांनुसार उपासना का मूल उद्देश्य हमारे उपास्य देवता के गुणों की प्राप्ति है अथवा दू शब्दों में, उनके ( आत्मा के स्वाभाविक ) गुणों में हमारे अनु राग को दृढ़ बनाने के लिये ही उनकी उपासना की जाती है are बारबार एकाग्रता पूर्वक चितवन करने से हममें भी वे ही गुण प्रकट होजायें । जिस प्रकार एक यात्री के लिये अपने उद्देश्य स्थान और उस तक पहुंचने के मार्ग का, जब तक वह वहां न पहुंच जावे. ध्यान में रखना आवश्यक है और वहां पहुंचने पर वह यह चितवन नहीं करता कि मुझे अमुक स्थान पर पहुंचना हैं किन्तु यह समझ लेता है कि अब मैं उसी स्थान पर हूं, dre sfruarर इस जीव के लिये भी अपने ध्येय और आदर्श पुरुषों के द्वारा बनाए हुए मार्ग का ध्यान में रखना आवश्यक है तथा क्रम २ से ध्यान (चितवन) के द्वारा उसकी तरफ अग्रसर होता हुआ वह अंत में उसे पालता है । उस समय चितवनकी बिलकुल आवश्यकता नहीं होती और
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सर्व प्रकार के विकल्प भra face ध्याता और ध्येय दोनों
एकही रूप होजाते हैं ।
इससे प्रकट हैं कि तोकी उपासनाका मूल उद्देश्य केवल यही हैं कि आत्माकी जिन स्वाभाविक शक्तियों को उन्होंने विकसित कर लिया है वे ही हम भी पूर्णरूपसे विकासको प्राप्तहोजावें तत्वार्थ सूत्र में कहा भी है:- मोक्षमार्गस्यनेतारं मेनारकर्मभूभृतां ज्ञातारं-विश्वत्वानां वंदे तद्गुण लब्धये- अर्थात मोक्षमार्ग के नेता, कर्म रूपी पर्वतों के तोड़ने वाले और संसार के तत्वों के जानने वाले अहेत की, उनके गुणोंकी प्राप्ति के लिये, वंदना करता है ।
यद्यपि प्रकार की उपासना के द्वारा आत्मिक शक्तियों का विकास होजाने से परिणाम: रूपसे लौकिक प्रयोजनों की भी सिद्धि होती अवश्य है किन्तु यह बात ध्यान में रखलीजिये कि जो लोग लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति केलिये, सांसारिक इच्छात्रों को पूर्ण करने की गरज से, श्रहंतों की पूजाभक्ति करते हैं. तथा तरह २ के प्रण और सौगन्ध लेते हैं, केसरियानाथजी, महावीरजी, शिखरजी, गिरनारजी आदिकी बोलारियां बोलते हैं और उनको श्राशा दिलाते हैं कि हमारे अमुक कार्य की सिद्धि हो जाने पर हम आपके दर्शन करने आयेंगे और छत्र चामरादि सुन्दर २ उपकरण चढ़ावेंगे: जो बीमारी और आईहुई दूसरी
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श्रापनियों मे छुटकारा पान के लिये चौमटऋद्धि . कर्मदहन, तीनलोक आदि के मंडल मंडवा कर उन वीतगग मूर्तियों को रिश्वत देने का ढोंग रचते हैं और जो यह समझने हैं कि कषाय और मिध्यात्व की किंचिनमात्र भी उनके स्वभाव में चाहे कमी न आवे तो भी केवल उनकी बहनों के प्रति भक्ति और पूजा ही उनके कर्मों को नष्ट कर देगी; वे लोग नाम मात्र के जैनी हैं कड़ी के पीटनेवाले हैं और मिथ्यात्व के प्रभाष मे जैनी बनने का ढोंग रचकर जैनधर्म को बदनाम करते हैं। ऐमी उपासना बिलकुल व्यर्थ हानी है और उसके द्वारा उपासना के असली उद्देश्य की प्राप्ति करोड़ों वर्षों में भी नहीं होसकती । सरुची पूजा तो वही है जो हमार श्रादर्शअंहतों- के जैसे गुणों की प्राप्ति के उदृश्य मे कीजाती है । बहुधा बहुत से लोग अंधश्रद्धावश ऐमा भी समझन रहने हैं कि हमारे उपास्य देवों की भक्तिपूर्वक पूजा करने के कारण, उनके प्रसाद से हमेंभी उनके जैसे गुणों की प्रामि हो जायगी तथा हमारे कर्म भी कट जायेंगे किन्तु वास्तव में बात यह है कि उनके गुणों के अनुराग पूर्वक चितवन तथा ममता भाव में ही, न कि उनके प्रसाद मे,हमारी आत्मा पर ऐसा प्रभाव पड़ता है और हमारी प्रात्मिक शक्तियो क्रम २ से विकाम को प्राप्त हो कर वे गुण हममें भी प्रकट होजाते हैं।
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जेमा हग पहले विचार कर चुके हैं अहंन एक दृष्टि में ना हम भूल भटकों का अपने उपदेश के द्वारा अत्यंत उपकार करगये हैं और दूसरी दृष्टि से हमारे श्रादर्श हैं नया य ही दोन कारण हैं जिनकी वजह में जैनधर्म उम श्रेणी के महात्माओं की जा और पामना करने की आवश्यकता बनाना है।
अब हम अपने प्रस्तुत विषय मुनि पृजा पर आते हैं। * जैन धर्म मिश्या पक्षपान करना भी नहीं मिग्याता । वह कहना है :
यो विश्ववदया जननजलनिधःभनिनः पारश्वा । पौवांपर्याविरुद्धंमचनमनुपमंनिष्कलंकम यायमः ॥ नं वंदे साधुवंदयं मकलगुणनिधि ध्वस्तापद्विशन्तम । बुद्धं वा वर्धमानं शनदलनिलयं केशवं वा शिवं वा॥
श्रीमन भह अकलंकदव के उपरोक्त पद्यम प्रकट कि जैन धर्मानुमार मव महापुरुप, जो अपने शान्द्रिय झान के वलसे नीनकाल सम्बंधी समस्त बातों को जानते हैं, जो संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिए नाका के समान है, जिनका उपदेश निष्कलंक है और वस्तु स्वभाव के विरुद्ध नहीं है तथा जो सर्व गुणोंकी खान और सर्व दोषों से रहित है, चाहे उनका नाम युद्ध हो, महावीर हो विष्णु हो. केशव हो या शिव हो अथवा कोई और नाम इंसा मोहम्मद वरांग हा. हमारे पूजनीयही है ।
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अर्हन सर्वत्र मदा विद्यमान नहीं रहने इमलिय परमात्मा के गुणों की स्मृति दिलाने के लिये उनकी अर्हन अवस्था की मनिया बनाई जाती है। वे मूर्तियां उनके वीतगगना, ध्यान मुद्रा में और शानना श्रादि गुणों का प्रतिबिम्ब होती हैं और उसी रहश्य को पूर्ण करना हैं । गमी मृतियों को कवाल पत्थर की बनाकर जो उनकी निंदा करते हैं व लोग वास्तव में जैनधर्म के नन्वा में पागचन नहीं हैं। जिस प्रकार किस कमरे में लगे हुगे, महान पुरुषों के चित्रों को देखकर उस कमरे में बैठने वाला के भन भी, (यदि व उनका जानन हैं और उनके गुणों को श्रादर की दृष्टि मे दखते हैं ) समय • पर जब २ भी _* ध्यान के समय शरीर की स्थिति कैसी होनी चाहिये. इसके लिये शासन का विधान कियागया है। जबतक श्रासन मज़बूत न होगा तवनक मनभी ध्यान में स्थिर नरहमकंगा श्रासन की दृढ़ता सं गरमी, सरदा वर्षा, डांस, मच्छर श्रादि की तरह २ की पीड़ा होनेपर भी मन चलायमान नहीं होता। ध्यान कग्न क वामन बहुनसे है जिनमें पद्मासन बहुत मुगम है। जैनियों के मन्दिरों में जो पद्मासन मूर्तियाँ होती हैं उन्हें देखकर हम जान सकते हैं कि इस श्रासन को किस प्रकार लगाना चाहिये इम श्रासन में शरीर को बिलकुल सीधा रखामा चाहिये और किसीभी अंग को तनाहुया न रखकर सम्र्पूण शरीर को बिलकुल शिथिल कर देना चाहिये।
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उनकी उन चित्रों पर दृष्टि जापड़ती है उन्हीं महापुरुषों के गुणों के स्मरण में लगजाते हैं और उनके द्वारा उनके चरित्र का भी सुधार होने लग जाता है। ठीक उसीप्रकार की मूर्तियां भी प्रथम तो बनावट में ही निर्बंध, परम वीतरागता सूचक और शांत होती है और उन्हें देखने मात्र से अत्यन्त शांति मिलती तथा आत्मस्वरूप की स्मृति होती है, इसके अलावा उन महान आत्माओं के गुणों की याद दिला
(जिनके स्मरण के लिये ही चित्र आदि की तरह वे भी बनाई गई हैं, हमारे विचारों को सुधारती तथा हमारे चरित्र को भी सुन्दर सांच में डाल देती है । हम फौरन विचारने लग जाते हैं कि हे आत्मन ! नेरा स्वरूप तो यह है ! इस भूलकर तू संसार के मायाजाल में और कपयों के फंदे में क्यों फसा हुआ है इत्यादि । इमप्रकार मनुष्य आत्मसुधार मार्ग पर as लगाते हैं और उसका श्रेय निमित्त कारण होने से हम मूर्तियों का देते हैं । किन्तु फिरभी बहुतसे मनुष्य ऐसे होते
'जिन पर उन वीतराग मूर्तियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु इसमें उन मृतियों का कोई दोष नहीं है । जिस प्रकार नदी पार जाने का पुरुष यदि किनारे पर नाव मौजूद होते हुये भी उस में न बैठकर वैसेही अपने प्राण गँवा देता हैं किन्तु इससे उस नाव की उपयोगिता में कोई फर्क नहीं
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आता उसी प्रकार यदि उन मूर्तियों से भी कोई लाभ नहीं उठाता तो उससे उनकी उपयोगिता कम नहीं होजाती । उन मूर्तियों को जो प्रणामादिक कियाजाता है वह वास्तव में आत्मा के स्वाभाविक गुणों को ( जो उन अर्हन्तों ने प्राप्त कर लिये थे ) ही प्रणामादिक करना है, धातु पापाण को नहीं क्योंकि केवल उन गुम्मों को ही लक्ष करके उन मूर्तियों की स्थापना की गई है।
'अब हम यह विचार करना है कि उपासना मूर्त पदार्थ- जैसे मूर्ति के अवलम्बन के बिना भी हो सकती है या नहीं और यदि हो सकती है तो किसप्रकार ? निस्संदेह मूर्त वस्तु के अबलम्बन के बिना भी उपासना होसकती है और वही उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है जिसको हम श्रीमन नेमिचंद्र सैद्धान्तिक चक्रवर्ति के मंग्रह की निम्नलिखित प्राकृत गाथा से प्रकट कर सकते हैं: -
*
माहि माह मानितह क्रिवि जेा हाइायगे । ser of a इणमेव परं हवे झाणं |
इसका आशय यह है कि न तो कोई उपाय करो, न कुछ और का चितवन को एक मात्र आत्मा
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का आत्मा में लीन होना ही उत्कृष्ट ध्यान है। इनसे स्पष्ट हैं कि उत्कृष्ट ध्यान वह है जिसमें न तो अरहंतों के ( आत्मा ) गुणों का चितवन ही अपेक्षित होताहै और न यम नियमादि रूप क्रियाओं का आचरण ही किन्तु केवल आत्मा को आत्मा में ff करने की आवश्यकता होती है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार के मूर्त आधार ( अवलम्बन ) की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यहां शब्द द्वारा चितवन का भी अस्तित्व नहीं रहता केवल परमवरूप मय भाव ही पाये जाते हैं। ऐसा ध्यान निर्विकल्प ध्यान ही होसकता है और वह उतना कठिन है कि हम सांसारिक विषय वासनाओं में लगे हुए मनुष्य ना
क्या अन् २ मुनि भी बिना बहुत बहुए अभ्यास के नही
करसकते । इसलिये इस ध्यान के करने की सामर्थ्य न रखने मनुष्यों के लिये किसी श्रालम्बन की आवश्यकता होती है और वह वन वे शब्द हैं जो आत्मा
不
स्वाभाविक गुणों को प्रकट करनेवाले भावों के धोतक होते
हैं । किन्तु उन मनुष्यों के लिये जो सांसारिक विषय वासनाओं
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में होने से आत्मा के स्वाभाविक गुणों के शब्दों के भाव को भी यह करने में असमर्थ होते हैं एक और अब लंबनकी आवश्यकता होती है, जिसको मूर्ति या चित्र कहते है ।
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ऊपर नीन प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। उनमें से पहला उत्कृष्ट ध्यान तो जहां कल्पना का भी अस्तित्व नहीं होता. केवल निर्विकल्य समाधि अवस्था को प्रामहुए मुनियों के द्वाग दी लगाया जामकना है अनाव वह . उममें नीचे दरजे के माध और गृहस्थों के लिये. निरुपयोगी है और उस अवस्था के प्राप्त होन नक हमार लिय उपासना के कंवल दो ही मावन रहजाने हैं :- ( 2 ) परमात्मा या जीवनमुक्त परमात्मा (अहन्ली) के स्वाभाविक गुणों के यौनक शब्दों का अवलम्बन लकर ( २ : जीवनमुक परमात्मा ( अहन्ता ) के स्वाभाविक गुणों के गातक शन्नों पार उन्हीं की नहाकार मनियों का अवलंबन लेकर। दानों कार के ध्यान के 'अबलम्बन , अन्न पौर पनि , मृताक है। मीलिय दम हमकन हैं कि (निर्विकल्प ज्यान के पलाया ) संग्मार की काई भी उपासना बिना मृत पदार्थ के अवलम्बन हा ही नहीं सकती, चाहे वह मन पदार्थ शव की नग्न मूक्ष्म हो या पापाण की मूर्तियाँ और चित्र आदि की तरह म्यूल । शब्द मूर्तीक पदार्थ है यह बात जैन धर्म में मिद्ध है; और आधुनिक विज्ञान ने भी Wirelesna tendo comply wit liguropone af ___ लामांनुसार संसार की उत्पति कमल दो प्रकार की वस्तुओं से ही है ( ननन () अचगान । अनेनन पदार्थ मूतीक
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अन्वषण के द्वारा यह अची तरह प्रमागिन करदिया है कि जान्द मनाक पदायों में उत्पन्न हान है, और मृतीक पदार्थों में हो गजान हैं मालग पयं प्रकार की मम मनियां हैं।
मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में ज्या ज्या श्रागे बढ़ता आ चलाजाना है न्यों न्यो उमक ध्यान का अवलंबन मृत श्राधार भी स्थूल में सूक्ष्म की नरफ क्रमशः बढ़ना हुआ चल। जाना है और अंत में मृत आधार के अम्नित्व का बिलकुल ही लोप होजाना है। यही कारण है कि नियों के प्रवलम्बन के विना प्रामचितवन में असमर्थ मनुष्यों की अहनों की
है श्री चतन अमृतक । शब्दों की उत्पनि अचनन पदार्थसंह
और उमीकारण वह मृतक होने हैं। जिस प्रकार पानी में पर न म उममें हलचल मच आनी है और वहाँ से लहर पैदाहोकर पानी में चागं ार फल जानी है उसी प्रकार वायु में भी मुंह के द्वारा या किसी और तरीके से प्राधान पहुँ. चने पर एक प्रकार की लहर पैदा होकर वायुमंडल में चारों और फैल जाती हैं जिनको हम कानी के द्वारा ग्रहण करते। और अपने कार्यों के लिये मुक्तार किया हु मतों के अनुसार उनमे मतलब निकाल लेनेहैं ।
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मनियों की श्रावश्यकता होती है और जो मनुष्य इतनी ननि करचुके हैं कि विना मनियों के अवजन के गां केवल शब्दों की सहायता में ही उनके गुणों का चिनका ( ध्यान ) कर सकते हैं. उनके लिये अहन्तों की उन तदाकार मूर्तियों का अवलम्बन अनिवार्य नहीं होना । अवलम्बन के मूक्ष्म और स्थूल होने की अपेक्षा मे ही कंवल शब्दों द्वारा हानवाली उपामना मनियों या चित्रों द्वारा हानेवाली उपासना की अपेक्षा, ऊँचे दरज की मानी जाती है क्योंकि वहां मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में दूसरी की अपेक्षा ऊँची माड़ी पर होता है । किन्तु मूनिया तथा चित्रों के द्वारा होने वाली उपामना को नीची श्रेणी की ममझकर हम लोग उसे त्याग नहीं मकने क्योंकि उमी के महार हमें उपरकी सीढ़ी पर पहुंचना है । जो मनुष्य संमार के माया जाल में अन्यन्न फॅमेहुए हैं और जिनके चिन इतने चंचल हैं, कि केवल शब्दों द्वाग परमात्मा के गुणों का विना उनकी जीवन्मुक्त (अहन्त) अवस्था के चित्र और मूर्तियों की महायना के ध्यान करने में असमर्थ हैं, उनके लिये उन वीतराग- मुनियों अथवा चित्रोंकी अत्यन्त आवश्यकता है । जिम प्रकार 'सर्प' इस शब्द के कानों में सुनते ही या अक्षर रूप में नेत्रों के सामने आते
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हो हमें 'सर्प ' नाम के एक विचित्र जहरीले जन्तु का बोध होता है, किन्तु ही सर्प की तदाकार मूर्ति के बने उससे कहीं अधिक होता है ठीक उसीप्रकार परमात्मम्वरूप के बोधक शब्दों के द्वारा परमात्मा का जो बोध हमको होता है वह
की तस्था की तदाकार मूर्तियों के देखने पर और भी after start । इसीलिये आजकल के विद्वान शिक्षाrit में बालकों को Direct method के अनुसार चित्रों और मृतियों के द्वारा शिक्षा देना अधिक पसंद करते हैं। वे इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि किसी भी वस्तु उदाहरण के लिये, बारहसिंगा की केवल शब्दों में गुण, आकार और ariae इत्यादि कुल विशेषताएं बताने पर जो प्रभाव उसका बालकों की समझ पर पड़ सकता है उसकी अपेक्षा farar ही गुणा अधिक प्रभाव उसके चित्र या तदाकारमूर्ति को दिखाकर वे सब बातें शब्दों द्वारा समझाने पर पड़ता है । संसार में सदा से अल्प विचारशक्ति वाले पुरुषों की ही संख्या अधिक रही है इमीलिये जैनाचार्यों ने भी उपासना के लिये हमारे आदर्श, श्रहंतों की नहाकार मूर्तियों की आवश्यकता पर अधिक जोर दिया है। हम सब परमात्मा, अल्लाह, CGround, ईश्वर ॐ आदि का उच्चार करते हैं, क्रॉस,
श्रादि चिन्हों
ु
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का धर्म के नाम पर प्रयोग करते हैं, अपन २ श्रादर्श पुरुषों के चित्र धर्मस्थानी और मकानों में लटकांन हैं और उनके जन्म
और मरमा के पवित्र दिनों के प्रतिवर्ष उत्भव करने हैं, किन्तु इन सब कार्यों का उद्देश्य मिवाय इसके और कुछ नहीं होसकता कि य मव कार्य परमात्मा की और उन. महा पुरुषों की स्मृति दिलानेवाले हैं । जैनिया के मंदिग में स्थापित की हुई अहंती की मूर्तियां भी परमात्मा का ही पनि दिलाने वाली हैं और इसलिये, जो लोग उनकी उपासना की निंदा करने हैं. के वास्तव में जैनधर्म के सिद्धान्तों में अनभित है।
किन्नु हम में पन्छा जामकता है :- क्योंजी : यदि जैन धर्म की मृतिपूजा ठीक वेमी ही श्रादर्श उपासना है कि जिम की प्रशंसा करने में तुमने इनने मपं. रंग बाल हैं तो क्यों श्रात कल तुम (जैनी ) हजारों रुपयों के चावल, बादाम और केशर चदाकर उन मूर्तियों को प्रसन्न करने की कोशिश करने रहने हो, क्यों उनको मुग्व दुःख की दनवाली ममझ कर अपन दुःख के निवारण के लिये तरह २ की स्तुति और पूजा करते हो
और यदि तुम्हें खुद को फुरसत नहीं मिलती है तो नोकरों के द्वारा उनकी मंशा पूजा क्यों कगते हो ? निस्संदेह, इन सब प्रश्नों का उत्तर देना जारी है और जब नक हम इनका ममा
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धान न करदें नबनक हम अपनी मूर्तिपूजा की प्रशंसा में वाह कितना ही गग अलापं किन्तु उसका दूमरों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । अन्य धर्मावलंबी ही क्या , बहुत से जनी भी मूर्तिपूजा के हमारे इम प्रचालित ढंग को अर्थ तथा समय का दुरुपयोग कग्नवाला समझने लगगये हैं
और इसके परिणामस्वरूप आज दिगम्बर जैनियों में तारन पंथी और वनाम्नर जैनियों में स्थानकवासी य दो पंथ मूर्ति पजा के घोर विगंधी दृष्टि में भाई हैं । इस विरोध का काग्गा भी यदि हम नियन भाव में विचार करें तो हमें मानमा मकना है और वह यही कि हमारी मूर्तिपूजा पारकन्न अपने लक्ष्य में भृष्ठ और आदर्श मे न्युन होकर कारी बुनपानी म्हगई है . उममें सूखा भावहीन क्रिया कांड फैला हुआ है और लाखों रुपया पूजा और प्रनिता के नाम में प्रतिवर्ष ग्यर्च करने और वहुन में आडम्बर करने पर भी मुधार कुछ नहीं होपाना किन्तु ममाज में तरह के अनाचारों की ही वृद्धि होती जारही है । गर्मा परिस्थिनि में हम (जैनी) म्वयं ता उद्देश्य में अगंन गिर्ग हुई मानपूजा करने हैं और इसरमागों की बुराई करने के लिंग पादर्श मृतिपूजा का राग अलाप पया इसमें बुद्धिमानी है ?
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उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर में बहुधा हमार्ग (जैनियों की) तरफ मे कहाजाता है:
१. जैन शाखों में पूजा ढा प्रकार की कही गई है.-एक द्रव्यपूजा और दूसरी भावपूजा । जल, चंदन आदि द्रव्यों का
आश्रय लेकर भेंट चढ़ाना द्रव्यपूजा है और गुणों का विचारना भावपूजा है।
गृहस्थों के मन का दव्यपूजा के द्वार। भावपूजा में आठ द्रव्यों का आश्रय लेकर जगाना मुगम होता है । इसलिये आट दल्यों के द्वाग आठ प्रकार की भावना करनी चाहिए :
१. जल चढ़ा कर यह भावना करना कि जन्म,जग,
मरण का गंग दूर हो । २. चंदन से भव आताप की शांति हो । - ३. अक्षत- मे अविनाशी पद की प्राति हो ! ४-पुष्प- से काम विकार का नाश ह।। ५. नैवेदा-सं क्षुधा रोग शांत हो ।
६. दीप- म माह अंधकार का नाश हो। ... एप में आष्ट कर्म का नाश हो ।
८. पल-से गाक्ष पद की प्रानि हो ।
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२. इससे हमारा चंचल चित्त जो लगातार एकही विचार पर लगा नहीं रह सकता, इमपकार 'विचार परिवर्तन' (Variation of thoughts) हाजान मे, आसानी में' मक जाना है।
३. जिमप्रकार किमी गानवाने का मन बाजे की सुर ताल की महायना में ज्यादा लगता है उसी प्रकार 'द्रव्य पूजा' . के द्वारा 'भाव पूजा में ज्यादा ठहरना है। ____ अब हमें उपरोक्त तीनों बातों की विवेचना करके देखना है कि हमाग यह उत्तर कहाँ तक ठीक है:
१. निस्सन्देह पूजा के दो भेद, द्रव्यपूजा और भाव पूजा, जैन शास्त्रों में माने गये हैं। किन्तु उस समय के जैनाचार्य वचन और शरीर को अन्य व्यापारों से हटाकर उन्हें अपने पज्य के प्रति स्तुनि पाठ करने और अंजुलि जोड़ने आदि रूप मे एकाग्र करने को 'द्रव्य पूजा और मन के काम करने को 'भाव पूजा' मानते थे जैसा कि श्री अमितगनि प्राचार्य के निम्नलिखित वाक्य से प्रकट है
बचो विग्रह संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । नत्र मानस संकोचो भावपूजा तिनै: 117
অস্কোর
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जैन धर्म संबंधी दूसरे विषयों के तो हजारों संस्कृत के प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं किन्तु पूजा विषयक बहुत कम दृष्टि आते हैं, और वे भी प्राचीन नहीं । इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में जैनियों में आजकल जैसी आडम्बर युक्त पूजन प्रचलित नहीं थी । लोग मन्दिरें में जाकर, जिनेन्द्र प्रतिमा के सामने खड़े होकर या बैठकर, अनेक प्रकार के समझ में आने योग्य स्तोत्र पढ़ते और उनके गुणों का स्मरण करते हुये उनमें तल्लीन होजाते थे। वे, आजकल की सी जल, चंदन आदि चढ़ाने की पूजाओं के द्वारा नहीं किन्तु अ भक्ति, सिद्धभक्ति आदि अनेक प्रकार के पाठों द्वारा (जिनमें से कुछ प्राचीन पाठ अभी प.ये जाते हैं), पूजा और उपासना करते थे; अथवा ध्यानमुद्रा में बैठकर परमात्मा की मूर्ति को हृदय में धारण करके उनके गुणों का चिंतवन करते हुये उनकी उपासना किया करते | किन्तु समय ने पलटा खाया और ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई जब " मैं जैनी हूँ " ऐसा करना तक आपत्ति का घर समझा जानेलगा इतिहास देखने बाल जानते हैं कि शंकराचार्य के समय में हिन्दुओं और जैनियों में विरोध भाव बहुत बढ़गया था और जैनियों का पक्ष निर्बल होता जारहा था। इसकारण उस समय में उन पर
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तरह २ के अत्याचार किये जाते थे यहाँ तक कि कई स्थानों में तो जैन मुनि दीवारों तक में जीते जी चुनवा दिये गये थे ।
आदि बाहरी हिन्दू धर्म के चिह्न न होने से उस समय के जैन विद्वान शूद्र नाम से अपमानित किये जाते थे तथा जैन धर्म और जैनियों का अस्तित्व तक कायम रहना कठिन होगया था। उस समय के दक्षिण के पांड्या राज्य के विषय में
सेंट ए. स्मिथ अपने भारत के इतिहास में लिखते हैं- "Very soon after Hiuen Tsang's stay in the south, the Jains of the 'andya ixiugdom suffered a terrible persecution at the hands of tho king variously called Kuna, Sundara or Nodumaran Pandya, who origi nally had been a Jain and was converted to a faith in Siva by a chola queen. He signalized his change ofcreed by atrocious outrages on the Jains who refused to follow his example. Tradition avers that eight thousand of them were impaled. Memory of the fact has been preserved in various ways, and to this day the Hindus of Madura, where the tragedy took place, celebrate the anniversary of the impalement of the Jains' as a festival ( utsava )". इसका आशय यह है कि पांड्या राज्य के जैनियों को
नचांग के दक्षिण में ठहरने के पश्चात् शीघ्र ही, वहाँ के
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सम्राद, कुण के अत्याचार सहन करने पड़े थे जो प्रारम्भ में जैनी था किन्तु पीछ जाकर अपनी चोल वंशीय रानी के प्रभाव से शैव धनगया था। उसने अपना धर्म परिवर्तन करते ही, उन जैनियों पर भी अनेक अमानुषिक अत्याचार किये कि जिनने उसकी तरह शव बनने से इनकार कर दिया था। इतिहास कहता है कि ऐसे आठ हजार जैनी तो बिलकुल कल ही करवादिये गये थे। आज भी मदुग के हिन्द उस स्थान पर प्रति वप उत्सव मनाते हैं।
उपरोक्त समय में, जिसका हम नियों की घटता का समय कह सकते हैं, लगभग समप्र ही भारतवर्ष में, जैनियों के प्रति हिन्दुओं का ऐसा ही बर्ताव रहा है। इस बात को सब जानते हैं कि दो विरोधी पक्ष वाले तब तक ही एक दूसरे का मकाबला करने रहते हैं जबतक उनको अपनी विजय की श्राशा रहती है और जब उनमें से किसी को भी दूसरे पक्ष वाले के मकावले में अपनी सफलता की भाशा बिलकुल नहीं रहती ना वह उससे मिलजुलकर और उसे खुश रखकर ही अपना अस्तित्व कायम रखने का प्रयन्न करना है। ऐसे संकट से वचन का जैनियों के लिये भी यही उपाय था कि भीतरी तौर पर जैन धर्म को पालन करते रहकर बाहरी
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नौर पर हिन्दुओं का सा आचरण करते रहवें अपने धर्म की रक्षा के लिये, वे इसके सिवाय और कर ही क्या मकते थे। उस समय के जैनाचार्यों ने, जब जैनियों को मजबूर होकर हिन्दू धर्म की क्रियाओं को अपनाते हुये देखा तो उनका जैनत्व न चला जावे इस भय से, उन क्रियाओं के बाहरी रूप में कुछ परिवर्तन करके उनके मूल में जैन धर्म संबंधी कल्पनाऐं डालदीं और उनको जैन शास्त्रों में स्थान देदिया । जैनी ही क्या, लगभग मन ही धर्म बालों को. जत्र भी उन पर ऐसा धर्म संकट आपड़ा है, नत्र २ गंसा ही करना पड़ा है और जैनी भी उस समय दि एमा न करने तो बहुन गंभव था कि अाज भारतवर्ष में जैन धर्म का भी बौद्धधर्म की तरह नाम मात्र ही भवशेष रहपाता। इसका श्रेय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के मर्मज्ञ, उन जैनाचार्यों को है जिन्होंने विचारशीलता से काम लेकर, बिना उसक मूल रूप का विकृत किए, जैन धर्म की रक्षा करनी।
इतिहास से यह भी साबित है कि जेनियो की इस घटती के समय में धार्मिक द्वेप बहुत बढ़ गया थ यहाँ तक कि
और तो क्या, हजारों जैन मंदिर और मूर्तियाँ तक नष्ट करदी गई इमीकारण उस समय के जैनाचार्यों ने नियों से जैन मन्दिरों के बाहरी भाग में हिन्दुओं में मैकजी की मी मतियाँ
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स्थापित करवाना शुरू कर दिया ताकि उनका उनसे हिन्दूपन टपकता रहे तथा जैन शास्त्रों में उन मूर्तियों को मानभद्र, क्षेत्रपालादि नामों से प्रसिद्ध करके जैनियों के उन संबंधी विश्वास में जैनत्व की छाप डालदी। ___उपरोक्त प्रभाव जैनियों की उपासना पद्धति पर भी पड़े बिना नहीं रहा है । जिस प्रकार हिन्दुओं के यहाँ नैवेद्य आदि चढ़ाये जाते थे उसी प्रकार जैनियों के लिये भी, जैन धर्म के सिद्धान्तों का रङ्ग चढ़ा कर, अष्ट द्रव्यपूजा की कल्पना कांगई और उस उनमें प्रचलित क दिया । इस प्रकार यह उपासना का सविासादा ढंग धीरे २ आडम्बरयुक्त होगया
और जो जिनेन्द्र न ता किसी के बुलाने से जाते पाते और न किसी के कहने से कहीं बैठते, ठहरते या नैवेद्यादि ग्रहण करते हैं उन्हें बुलाया, बिठाया जानेलगा और नैवेद्यादि अर्पण करने के बाद विसर्जनात्मक शब्दों के द्वारा विदा किये जाकर उनसे अपने अपराध क्षमा करवाना भी पूजा का आवश्यक श्रङ्ग बनगया। परन्तु निष्पक्ष दृष्टि से यदि आप विचार करें तो आप को निश्चय होजायगा कि ये बातें जैन धर्म के सिद्धान्तों से कतई मेल नहीं खाती क्योंकि वे हिन्दूधर्म की केवल एकप्रकार
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की नकल के रूप में है जो कुछ परिवर्तन करके अपनाली गई हैं। उद हरण के लिये हिन्दुओं की 'पंचायतन पूजा' में का कुछ अंश जैनियों के विसर्जन पाठ से मालान करने के लिये उद्धत किया जाता है
आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम्। पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्य भावेन रक्षस्व परमेश्वर ।। मंत्रहीन क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर । यत्यूजितं मयादेव परिपूर्ण तदस्तुभे ॥ यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् । तत्सर्व क्षम्यतां देव क्षमस्व परमेश्वर ।।
उपरोक्त वाक्यों के हमारे विसर्जन के उसी से मिलते हुए अंश से मल न करने प. इसमें संदेह नहीं रहना कि उपरोक के ही शब्दों में कुछ परिवर्तन करके हमने उसे अपना बना लिया है । इस विषय में हम ( जैनी ) यह कदापि नहीं कह सकते कि पूर्वोक्त में हिन्दुओं ने हमारी ( जैनियों की ) नकल की है क्योंकि हमारे यहाँ नैवेद्यादि चढ़ाने और इसप्रकार
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के विसर्जन , आवाहन आदि की पूजाओं के कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं हैं और हिन्दुओं के यहाँ वेदों नक में आवाहन
और बिमर्जन पाया जाता है । हिन्दु इस बात को मानते हैं कि देवना बुलाने में आने, बैठते और चढ़ाया हुआ द्रव्य ग्रहण करकं, विदा करने पर, वापस चले जाते हैं और उनके प्राचीन धर्मशास्त्र वेदादि में ऐमी पूजा भरीपड़ी हैं किन्तु हमारे धार्मिक उसूलों से ये बात कतई मेल नहीं खातीं । वास्तव में बात यह है कि उस समय के जैनियों को, हिन्दू धर्म के प्रभाव मे प्रवकर, यह पूजा का ढंग भी ग्रहण करना पड़ा था और उस ममय के प्राचार्यों ने , लोगों का धार्मिक विश्वास न डिगने पावे इस गरज मे उसी को 'द्रव्य पूजा नाम ददिया । अस्तु आप समझ गये होंगे कि जिसका वर्णन पहिले किया जा चुका है वह द्रव्य पूजा ही, प्राचीन प्राचार्यों की बनाई हुई द्रव्य पूजा है, जल चंदनादि से होनेवाली नहीं । बहुधा हमारे जैनी भाई नैवेद्यादि चढाने की पुष्टि में एक और उदाहरण दिया करते हैं । वे कहते हैं- “जिसप्रकार किसी राजा के सामने जाते समय हम , हमारे हदयों में उसके प्रति श्रादर होने से ,उसकी भेंट के लिये कोई न कोई वस्तु अवश्य लेजाते हैं उसीप्रकार जिनेन्द्र देव जो देवों के भी देव और राजाओं के भी राजा हैं,
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उनके भी सम्मानार्थ हमें कुछ न कुछ चढ़ाने को अवश्य लेजाना चाहिये और जो लोग रीते हाथ जाते हैं- समझलो कि उनके हृदयों में उनके प्रति कोई आदर भाव नहीं है" हमारी समझ में ऐसे उदाहरणों का प्रभाव बच्चों और मूखों पर ही पड़ सकता है, समझदारों पर नहीं क्योंकि राजा की उपमा उन वीतराग अरहंतों को नहीं लग सकती । राजा तो भेंट आदि के इच्छुक और लक्ष्मी के उपासक होते हैं और भेंट आदि करने पर हम से प्रसन्न होते हैं किन्तु उन जिनेन्द्र को न तो हमारी भेंट की ही इच्छा होती है और न चढ़ाने पर प्रसन्न और नचढ़ाने पर अप्रसन्न ही होते हैं अतः हमारा वह द्रव्य चढ़ाना व्यर्थ होता है । यदि राजा की उपमा उन पर लगादी भी जाव नो जिस प्रकार राजा के आगे, जिस वस्तु का वह बुरा समझ कर घृणा की दृष्टि से देखने लग जाता है वह वस्तु भेंट करने पर वह नाराज ही होगा इस भय से, ऐसी वस्तु को कोई में भेंट नहीं करता उसीप्रकार उन जिनेन्द्र के भी, जो तुधा तृषा आदि सर्व प्रकार की वेदनाओं से मुक्त हैं, जिनको किसी भी तरह की इच्छा नहीं है और जो सब वस्तुओं का त्याग करचुके हैं, उनकी इच्छा विरुद्ध (त्याग कीहुई ) वस्तुएं भेंट करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करना उनका अनादर और उपहास करने के समान है।
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इस पर प्रथम विचार किया जाचुका है कि उपासना परमात्मा के गुणों के चितवन ( ध्यान ) के रूप में की जानी चाहिये । किन्तु गृहस्थों का चित्त (जो सांसारिक प्रपंचों में फंसे रहते हैं ) सर्वदा व्यग्र और अस्थिर रहता है अतः उपासना के विषय में एकाग्र करने में प्रथम हमें उसे शांत (समभावरूप)करना पड़ता है। यह कार्य बारह प्रकार की भावनाओं तथा वैराग्य
* उपरोक्त चारह भावनाएं य हैं:- (१) अनित्य-जीव आदि समस्त वस्तुएं पर्याय रूप से श्रानन्य (नाशवान ) हैं अतः उन क्षाक्षिक पर्यायों से मोह न करना चाहिय(२) अशरण- इस जांध को दुःख. मरण से बचा सकन की सामर्थ्य रखनवाला काई नहीं है, जैसे कम करेगा वैसा फल भोगना ही पंडगा (३)संसार भावना-अनेक जन्मी में यह जवि अच्छे से अच्छे सुख भोग चुका फिरभी नतो इलकी चिपय तृपला मिटी और न शांति मिली तःमुख की लालसास इन इन्द्रिय जनित क्षणिक सुखो के पीछे दोड़ना व्यर्थ है (४) एकत्व-मेरे इस जीव को भो. ही जन्मना, मरनावदुःख भोगना पड़ता है और वह सबसे निराला एक धानन्दमई और ज्ञान प्रादि गुणों से युक्त है। (५) अन्यत्वमेरे आत्मा से शरीरादि व सर्व ही श्रात्माएं व अन्य पांचों इग्य बिलकुल भिन्न है। (६) अशुचि- यह शरीर मलमूत्र से भरा है और इसके रोमर से मल बहता रहता है ऐसे शरीर से ममत्व त्याग कर अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये। (७)श्राम-किस प्रकार कमाँ का जीव की तरफ भान
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और शांति के उम्पादक भावों के चितवन मे ही हो सकता है। इसप्रकार मत के समभाव रूर (शांत ) होजाने पर उसे अपने उपासना के विषय में एकाग्र करने की आवश्यकता होती है क्योंकि बिना एसा किये अभीष्ट फल की सिद्धि होही नहीं सकती । मन की एकाग्रता का नत्रों से घनिष्ठ संबंध है । जो अपने नत्रों को वश में कर लेता है उसके लिये मन का एकाग्र करना आसान होजाता है अतः इस कार्य की मिद्धि के लिये मूनि के द्वारा उपामना करने वाले तो जिनेन्द्र की वीतराग छवि पर पि को स्थिर करके मन को एकाग्र करते हैं और दूसरे लोग, नामिका पर स्थिरकरके । मूर्ति के द्वारा दृष्टि को स्थिर करने का अभ्यास करने समय परमात्मा की उस सुंदर मूर्ति को एकटक देखते रहना चाहिय, न तो होता है इस पर विचार करना () संबर - कमाँ के श्रास्रव को रोकने के उपायों का चितवन करना। (६) निर्जरा-जिन उपायों से कमी से छुटकारा मिलता है उनका चितवन करना (१०) लोक भावना विश्व की विशाल और विश्वलीला का विचार करके उस मब पर विजय प्राप्त करने की शक्ति वाले प्रात्मा की शक्तियों काचितवन करना (११) बोधिदुर्लभ-प्रास्मोहार के मार्ग सम्यग्दर्शनशानचारित्र का प्राप्त होना अत्यंत कठिन है अतःप्राप्त होने पर उसे खोना न चाहऐ ।।१२) धर्मधर्म आत्मा का स्वभाव है और अदिसामई है।
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ऑंखें ही पानी चाहिये और न आँखों की पुतलियों को दी र उधर फिरने देना चाहिये । यदि आँखों में पानी श्रजाय तो आने दिया जावे किन्तु आंखें बंद न की जावें । इसका अभ्यास प्रातःकाल और मांयकाल दोनों समय करें । पहिले दिन जब आँखों में पानी आ जावे तब देखना बंद कर दें पश्चात क्रमशः बढ़ते २ जब १५ मिनिट तक इकटक देखते रहने का अभ्यास होजावे तब मूर्ति के सामने देखना बंद करके अपने अतरंग में दृष्टि को फेरिये । वहाँ आपको मूर्ति का प्रतिबिम्ब दिखाई देगा । उसे विशेष समय तक देखते रहने का अभ्यास कीजिये ज्यॉ २ अभ्यास बढ़ता जावेगा, वह प्रतिविम्ब उतना ही अधिक स्पष्ट भासेगा । उस समय आप उन परमात्मा के अरहंतावस्था के जीवन की घटनाओं से शिक्षा ग्रहण कीजिये और उनके गुणों के चितवन के साथ अपने श्रात्मस्वरूप का चिंतन कीजिये कि मैं अत्यन्त निर्मल, शुद्ध, अनन्त ज्ञान और अनंत शक्ति का भंडार, अनंत सुख से भरपूर, अपने मन वचन काय पर शासन करने में पूर्ण समर्थ और सर्व प्रकार के पापों और विकारों से परं हूँ । तथा दृढ़ विश्वास के साथ ज्ञानवरणी, दर्शनावरणी आदि श्रष्ठ
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कर्म की, एकएक को लेकर संकल्प कीजिये कि उनके परमाणु
आपके शरीर से निकल २ कर जारहे हैं और उनके क्षय होने के साथ ही ज्ञान, दर्शन आदि गुण क्रमशः प्रकट होते जारहे हैं (यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि जिसे विचार का आप चितवन कर रहे हैं उसके अलावा कोई भी दूसरा विचार मन में न आने पावे और यदि आजाये तो उसी ममय उसे निकाल देना चाहिये )। फिर देखिए ! आप की इस
* संसार में काई भी ऐसा कार्य नहीं है जो अटल विश्वास और दृढ़ संकल्प के द्वारा पूरा न होसके। विश्वास के बल से मानसिक शक्तियां एकत्रित होकर संकल्प की दृढ़ता से काम को पूरा करने की तरफ लग जाती हैं। श्रद्धाहीन (संशयी) पुरुष सदैव शंकावादी बनारहता है। वह कहता है कि मैं अशक हूं, दीन हूं, डरपोक हूं, अब मैं क्या करू, मैं बीमार हूं, मुझ किसी का रोग तो नहीं लग जायगा मेरा काम होगा या नहीं, मेरी पाचनशक्ति ठीक नहीं है. मरे दिन अव खराब प्रागंय हैं, मेरी ग्रहदशा अब ठीक नहीं है श्रादि । वह इस प्रकार चिंता भय और शंका के विचारों को मनन करता रहन से तथा दुःख दरिद्रता और घातक विचारों के ही विचार में पड़ा रहन से, सदैव दुखी ही बना रहता है। भय से मनुष्य की मृत्यु तक होजाता है There is nothing but fear to fearअर्थात् मय ही एक ऐसी वस्तु है जिसस मनुष्य का डरते रहना चाहिये। इसी लिये जैनधर्म ने शंका और भय को सम्यग्दर्शन का प्रतीचार
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एक ऐसे विशेष क्रम से घुमाते फिराते लेजावें जिससे वह उकताने भी न पाये और हमारे काबू में भी बना रहे । बस, इसी को Variation of thoughts कहते हैं परन्तु प्रश्न यहाँ यह पैदा होता है कि क्या Variation of thoughts बिना द्रव्य की सहायता के नहीं हो सकता है अथवा क्या द्रव्य उसके लिये अनिवार्य है ? इसका उत्तर Variation of thoughts के अर्थ पर विचार करने से ही मालूम होसकता है जिसका अर्थ हैं 'विचारों का बदलना'। विचार तो तब भी बदलते हैं कि जब मन एक विचार से उकता कर भाग जाता है परन्तु यह विचारों का बदलना और तरह का है। इसमें विचारों के बदलने का क्रम पहिले से ही निश्चित कर लिया जाता है और इस प्रकार पहिले से निश्चित किये हुये क्रम के अनुसार विचार बदलते रहन से मन भी उकता कर नहीं भागता और साथ ही उन निश्चित विचारों से बाहर न जा सकने से काबू में भी बना रहता है। इस दृष्टि से प्रचलित द्रव्यपूजा पर भी विचार करने पर आपको मालूम होगा कि इसमें भी एक निश्चित क्रम से आठ प्रकार की भावनाओं (विचारों) का चिंतवन किया जाता है और इस प्रकार एक ही भावना का लगातार चितवन न होने से मन नहीं उकता ने पाता । उसमें थोड़े २ काल तक एक २ भावना को लेकर बारी
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वारी स चितवन किया जाता है तथा प्रत्यक भावना के चितवन के समय उसके सिवाय कोई भी दूसरा विचार मन में नहीं
आने दिया जाता इसलिये एकाग्रता का भी अभ्यास होता है। जब मन एक भावना के चितवन का छोड़ता है तो वैसे ही अपनी मर्जी के मुनाविक इधर उधर नहीं चला जाता प्रत्युत उसे. पहिलं से निश्चित किये हुये क्रम के अनुसार आने वाली, उमक पछि की भावना पर ही जाना पड़ता है। हमारे इस विवेचन से आप ममझ गये होंगे कि प्रचलित दत्र्यपूजा में जो कुछ महत्व है वह निश्चित क्रमवाली उन आठ प्रकार की भावनाओं में ही है जो उन द्रव्यों को चढ़ाने समय की जाती हैं। द्रव्य म उसमें किसी भी प्रकार की विशेपता नहीं पाती क्योंकि वह तोएक अनावश्यक वस्तु और हमारे हिन्दू भाइयों के अनुकरण में सीखा हुआ एक आडम्बर है जिसकी सहायता के बिना ही, एक निश्चिन क्रमवाली, भावनाओं के द्वाग हम अपने ध्येय के चितवन में एकाग्रता संपादन करने का प्रयास कर सकते हैं । यदि इस प्रचालित अट अलगपूजा में मेन पाठ:प्रकार की भावनाओं के चितवनका निकाल दें ना ये क्रम २ मे नहाय जाने वाले जलचंदनादि दव्य किर्मा भी तरह Variation of thoughts के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर सकते और यदि जन्म जगमगाह नाश के लिये जल चढ़ाना ( जम्ग जग मन्य
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विनाशनाय जलं ) आदि न कहकर केवल 'मेरा जन्म, जरा, मरण रूपी रोग दूर हो' इस प्रकार क्रम २ मे आठों प्रकार की भावनाओं का चितवन करते हुये चले जावें तो जलचंदनादि द्रव्य के बिना भी Variation of thoughts के उद्देश्य की सिद्धि अच्छी तरह हो सकती है। जल, चंदन आदि द्रव्य में कोई भी ऐसी बात नहीं है कि वह किसी भी प्रकार से एकाता संपादन में सहायक होसके और न यह वान ही है कि 'जन्म, जरा, मरण के नाश के लिये', 'जल चढ़ाता हूँ", एमा कहे बिना वह भावना हो ही न सके । इससे प्रकट है कि इस अष्ट द्रव्यपूजा में भी जो कुछ महत्व है वह द्रव्य में नहीं किन्तु निश्चित क्रम में कीजाने वाली भावनाओं में ही है। इसी प्रकार कंठ किये हुये पाठ, स्तुति आदि के द्वारा भी अल्पशक्ति बालों को एकाग्रता का अभ्यास बहुत आसानी से हो जाना है क्योंकि उसमें भी पूर्व निश्चित क्रम में योड़ २ समय तक उनक एक २ पद के अर्थ पर चितवन करते हुये जाना पड़ता हे नथा ऐसा ही लाभ आदर्श पुरुषों के जीवन की घटनाओं और बारह भावना आदि का किसी पूर्व निश्चित क्रमानुसार चितवन करने से भी होता है ।
( ३ ) यह कहना कि जिस तरह किसी गाने वाले का मन बाजे की सुरताल की सहायता से ज्यादा लगता है उसी
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कार द्वन्य पूजा के द्वाग भाव पूजा में मन ज्यादा टहर मकना हे, भा ठीक नहीं है । यहां विचारने की बात यह है कि एकाप्रता सम्पादन का जो गुण बाजे की मुरताल में होता है वही ज्या द्रव्य में भी हा मकता है ? वाजे की सुरताल ( संगीतध्वनि ) का मनमोहक गुण नो लोक प्रमिद्ध है और उसमें पनी शक्ति है कि मनुष्य की शकल देखते ही दूर भागने वाले मृग तथा सर्प आदि जन्तु भी उम मधुर ध्वनि मे मोहित होकर अपन पकड़न वाले की कोई परवा न करने हुये उसके मनने में दनचिन होकर जहां के नहां बड़े रह जाते हैं और अपनी स्वतंत्रता खो बैठते हैं । अनः अष्ट द्रव्य को बाजे की सुरताल के समान मानना ठीक नहीं है। उदाहरण के लिये देर मनुष्यों का विचार कीजिय जिनमें से एक नो गाना गा रहा है और दूसरा अपने इप्रदेव की पूजा बोल रहा है। दोनों के लिये एक २ वाजे का प्रबन्ध कर दीजिये। बाजे की ध्वनि में जिस प्रकार वह गाने वाला गाने में मम्न होजाता है उसीप्रकार वह पूजा करने वाला भी उम पूजा की भावनाओं में लीन होजाता है । किन्तु दोनों को बाजे के स्थान में अष्ट द्रव्य देवीजिये और उन्हें समझाइये कि इसस तुम्हारा मन ज्यादा लगगा-फिर देखना वह गाने वाला आपकी इस बात का क्या उत्तर देता है ? मतलब यह है कि द्रव्य में मन की एकाग्रता
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को बढ़ाने की कोई शक्ति नहीं है और खरों के बनार बढ़ाय से उत्पन्न होने वाली बाजे की इस संगीत ध्वनि में यह शक्ति प्राकृतिक तौर पर ही भरी पड़ी है। आप देखते हैं कि are
दिवा में यह पता न होते हुए भी कि उनके बजाने वाले किस भावना से शुक्र कोनमा गाना गा रहे हैं तो भी केवल उनकी ध्वनि मात्र मे हमारा मन सब जगह से न कर उनके सुनने में काम होजाता है। इसमें प्रकट है कि स्वरों के उतार चढ़ाव रूप बाजे की ध्वनि में तो चितवन योग्य किसी भावना का अस्तित्व न होते हुये भी मन को एकाग्र कर देने की शक्ति होती है किन्तु Forer में जिन भावों का चितवन करके मुख्य चढ़ाया जाता है, वे भाव यदि निकाल दिये जायें तो कांरा तृव्य चढ़ाना कुछ भी नहीं कर सकता । वास्तव में वे निश्चित क्रमवाली आठ प्रकार की भावनाएं ही हैं जो एक ही भावना में लगातार बहुत समय तक एकामता रख सकने में समर्थ हमको, धीरे २ उस योग्य बनाती हैं । द्रव्य में ऐसी कोई भी बिशेषता याज नक न तो देखी गई और न सुनी गई कि उसको वाजे कं सुरताल से समानता दी जा सके ।
जल चंदनादिव्य बहाने के पक्ष में आजकल बहुधा जो कुट कहाजाना है उसका विवेचन अब तक काफी किया जाचुका है
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४५ और 'रम पर निप्पन भाव में विचार करने पर इममें मंदह नहीं रहता कि इसके बढ़ाने में हमारी भाव पूजा में हमें कोई भी लाभ नहीं पहुंचता तथा प्रार्चान समय में भी जैनियों में इम ढंग की द्रव्यपूजा नहीं कीजानी थी किन्तु हमारी घटनी के ममय में ही हमारे हिंद भाइयों का अनुकरण करके उनकी और बढ़त मी बातों के मात्र हमने इसे भी अपना लिया है।
अन्न उन बुराइयों का दिग्दर्शन कग देना भी उचित होगा जो. हमारी जैन समाज में इम द्रव्यपूजापद्धति के कारण. उत्पन्न होगई हैं । यद्यपि जैन धर्म इस बात को नहीं मानता है कि अरहंत, जिनकी मन्दिरों में प्रतिमाएं हैं वे, हमें सुख दुःग्य देते या हमार कमी को नम कर देते हैं तो भी जिस श्रेल के मनुष्यों के सुधार के निमित प्रचलित द्रव्य पूजा की आवश्यकना बताई जानी है उम श्रेणी के मनुष्यों के चित्त पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। यह बात मानी हुई है कि प्रत्येक धर्म के मानने वालों में बहुत थोड़े ही मनुष्य प्रेम होते हैं जो अपने धर्म को, उमके धार्मिक तत्वों को समझ कर ही, ग्रहण किंय हुये हों तथा ऐसे मनुष्यों की ही संख्या अधिक होती है जो बिना उसके तत्वों को समझे केवल कुल परंपरा के कारमा उम धर्म को मच्चा समझ कर उसके अनुयायी
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बने हैं। ओ लोग एक धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म को को ग्रहण कर लेते हैं उनमें भी बहुत से तो ऐसे होते हैं जो यातो पेट के खातिर ऐसा करते हैं (भारतवर्ष में ईसाइयों की संख्या अधिक करके इसीप्रकार बढ़ी है ) या प्राण नाश के भय से ( इस्लाम का प्रचार अधिक करके इसी प्रकार हुआ है ) या योगाभ्यास में उत्पन्न हुई मिट्टियों के नमत्कार से प्रभावित होकर (यह बात लोगों में आमतौर मे देखी जाती है कि जहां किसी माधु, महात्मा ने कुछ करामातें दिखाई कि लोग उसे पूरी श्रद्धा से देखने लगजाते हैं और उसके ' जायों पर इतना विश्वाम करते हैं कि जितना दूसरे मरने मे
मनुष्य पर भी नहीं । वे ऐसी सिद्धियों का होना सजाई का प्रमाण मानते हैं *) और या अपने श्रद्धापात्र बड़े आदमियों के अनुकरण के रूप में ऐसा करते हैं । इसलिये हमारा यह *उदाहरण के लिये खंडेलवाल जैनियों की उत्पत्ति के इतिहास पर विचार कीजिये । वह इसप्रकार हैं कि एक समय खंडेला प्रांत मॅमरी रोग फैला हुआ था। कुछ जैन मुनियों ने वहां पदापर्य किया और उनके प्रभाव से वह रोग उस प्रांत से ही मिट गया refer केवल योगाभ्यास से उत्पन्न हुई सिद्धि का प्रभा था और धर्म की सत्यता से इसका कोई संबन्ध नहीं था तथापि उन लोगों ने इसको जैन धर्म की सत्यता का प्रमाण समझा और उस प्रांत के बहुत से लोग जैनी होगये ।
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कथन अनुचित नहीं हैं कि किसी भी धर्म के अनुयायियों में, उसके तत्वों को समझ कर उस धर्म को मानने वाले, बहुत अल्प संख्या में होते हैं। ऐसे मनुष्यों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे उसकी प्रत्येक क्रिया को समझ २ कर ही करेंगे । अतः धर्म की प्रत्येक क्रिया का रूप ऐसा होना चाहिये कि उसका असली आशय साफ तौर से प्रकट होता रहे और अल्प बुद्धि वाले उसका और मतलव न समझलें । इस दृष्टि से प्रचलित द्रव्य पूजा के ढंग पर विचार करने से मालूम होगा कि इससे वर्तमान जैन समाज में धर्म के नाम पर मिध्यात्व की वृद्धि बहुत होगई हैं। लोग अरहंतों को हिन्दुओं के मे करता हरता ईश्वर समझ कर इस विश्वास को लिए रहते हैं कि उनकी भक्तिपूर्वक सेवापूजा आदि करने पर और पूजा के लिये चांवल आदि द्रव्य भेज देने पर वे हमें सुख देने और संसार के दुःखों से पीछा छुड़ा देते हैं । इसीकारण उनका प्रत्येक कार्य इसी भाव को लिये हुये होता है। जहां ज्वर आदि रोगों से पीड़ित हुए fter मंदिरजी' दौड़ जाते हैं और उनकी निवृत्ति के लिये 'भगवान की 'प्रज्ञा' के नाने की लकीर लाकर बांधते हैं और से छुटकारा पाजाने पर उसे 'भगवान' का श्रतिशय समझते हैं । * यदि उन्हें किसीप्रकार की विपत्ति आघेरती है तो भयभीत
*निमाज का मंदोदक लगाने से उनकी प्रज्ञाल के नाम
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होकर प्रतिज्ञा करते हैं-हे महावीरजी ! इस विपत्ति से छुटकारा मिल जान पर मैं आपके दर्शन करने आउंगा और तब तक के लिये मेरे चांवल म्बान के त्याग हैं श्रादि-अथवा उससे छुटकारा पाने के लिये मंडल मंडवाते हैं या समऋपि आदि की पूजाऐं करवाते हैं। मतलब यह है कि हमारी जैन समाज के धार्मिक विचार आमतौर सं हिन्दुओं के से हारहे हैं और यदि आप इसकी जांच करें तो जहां तक हमाग विचार है लगभग सवही जगह जैन समाज की एसी ही हालत आपकी हष्टि में आवंगी। इस पूजा के ढंगन और तो क्या, समाज के अच्छे विद्वानों और
कीलकीरवांचन सतया उसी प्रकार और देवी देवताओं की भभूत वगै लगाने से हम लोगों के दुःखों की जो निवृति होती है उसमें उन प्रतिमाजी नथा उन देवी देवताओं की शक्ति का प्रभाव नहीं होता किन्तु उसका कारण स्वयं हमारी Will Puner: संकल्प शक्ति ही है। जो लोग अपन भिन्न २ इप्रदेव के प्रभाव स एसा हानामानने वभूल करतहैं और वे उस कस्तुरी मृग के सदृश हैं जो यह न जान कर, कि जिस अमूल्य वस्तु की खोज में मैं हूं वह मेरे ही अन्दर मौजूद है. रात दिन उसीकी तलाश में व्यर्थ ही माराफिरता रहता है। वास्तव में आपके अन्दर ही आपकी श्रान्मा की अनंत शक्ति छिपी पड़ी है जिस पर यदि आपकी पूर्ण श्रद्धा हो तो आप संसार को अनेक विचित्र सभी विचित्र कार्य करके दिखा सकते हैं।
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कवियों तक को खाली नहीं जान दिया है । चावल आदि दुष्य यहान का उनके मस्तिष्क पर कुछ प्रभाव ई मा पड़ा कि उनक विचार और परिणाम स्वरूप पूजा पाठ आदि उनकी कृतिया, मत्र हिन्दू धर्म के आस्तिक विचारों के रंग में रंग गये । व भक्ति ग्स के प्रभाव में इनन ड्रव गये कि उनको यह तक नयाल नहीं रहा कि जैनधर्म इवर के कांपन को स्वीकार नहीं करना अत: उसमें भक्ति का मामा बहुत माहित है। इसके कुछ उदाहरगा भी दग्विए । एक जैन कवि जिनेन्द्र में प्रार्थना करते है- "नाथ माहि जैस बने वस नाग मोरी करनी कछु न विचारा" आदि-करनी को ही ईश्वर मानन वाले जैन कवि के इस वचन में इश्वर कर्तृत्व का कितना भाष भरा हुआ है । पूजा के अंत में प्रति दिन प्रार्थना की जाती है" सुत्र देना दुख मेटना यही तुम्हारी बान, मोहि गरीव की श्रीमती सुन लीजो भगवान"। शांति पाठ में भी प्रति दिन इच्छा की जाती है-"कृपा तिहारी ऐसी हाय, जामन मरण मिटाया मोय" एक प्रसिद्ध कवि वृन्दावनी अपनी मंकटहग्गा स्तुनि में कहते हैं-"हा दीनबंधु श्रीपति कारमा निधानजी, अब मंग व्यथा क्यों न हर बार क्या लगी . मालिक हा दा जहान के जिनराज आप ही, एको हुनर हमारा कुछ तुम से छुपा नहीं । बजान
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में गुनाह जो मुझ से बन गया सही, कंकरीके चोर को कटार मारिये नहीं। यही कवि अपनी दूसरी स्तुति में लिखने हैं “कपि श्वान सिंह नवल अज बैल विचारे, तिथंच जिन्हें रंच न था बोध जितारे इत्यादि को मुरधाम दे शिव धाम में धारे, हम
आपसे दातार का प्रभु आज निहारे"। इसप्रकार और भी कई पूजा पाठ स्तुतियां आदि हैं जिन में ऐसी ही बांत भरी पड़ी हैं।
अब बताइये, इनका लोगों पर क्या प्रभाव पडता होगा ? ऐसी हालत में क्यों न व, परमात्मा को हिन्दुओं के जैसे कर्ता हर्ता परमेश्वर समझते रहेंगे और अपने ही अन्दर छिपी पड़ी हुई आत्मा की अनंत शक्ति में श्रद्धाहीन होकर सांसारिक दुःखों से भयभीत हुए, उन परमात्मा को ही सब कुछ सांसारिक सुख
आदि देने का प्रभाव रखने वाले समझते रहेंगे? निस्संदह इन सब बातों के कारण हमारी समाज का धार्मिक विश्वास आमतौर से मिथ्यात्व के रूप में परिणत होगया है । लोग आत्मा और आत्मशक्ति में बिलकुल श्रद्धाहीन होगये हैं । वे अपने आपको, आत्मा के ज्ञान श्रादि गुणों के प्राप्त करने की सामर्थ्य से रहित, तुच्छ सा व्यक्ति समझते रहते हैं और अपने प्रत्येक सुख की प्रामि को भगवान के प्रभाव पर अवलंषित
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समझ कर केवल रटीहुई पूजा या पाठ आदि के द्वारा ( जिनके मतलब तक का मनन करने की इच्छा नहीं की जाती) भक्तिपूर्वक जलचंदनादि चढ़ाकर पूजा करने मात्र ही में धर्म समझते रहते हैं। ऐसे ("जैनी नाम के धारण करने वाले) मनुष्य क्या कहे जाने के योग्य हो सकते हैं और वे, जिनका अपनी आत्मा की शक्ति ( योग्यता ) में विश्वास तक नहीं है, यदि सांसारिक स्वार्थों के खातिर संसार में भीरु और कायर बन कर जैनधर्म के सर्वोत्कृष्ट मूल सिद्धांत अहिंसा' को कायरता, भीता और भारत के पराधीन होने का कारण, यदि खिताब दूसरों से प्राप्त करवा कर जैनधर्म की अ प्रभावना कराये क्या ही है ? अतः हमें चाहिये कि नित्साहित करने वाली ( Passimistic ) भावनाओं और पूजा पाठ का कभी विचार तक न करें तथा सर्वदा एसी ही भावनाओ से युक्त पूजा पाठ का चिंतन किया करें जो उत्साहवर्धक (Optimistic ) हो और आत्मबलको विकमित करने वाले हों ।
इसके उत्तर में संभव है आप यह कहें "कि कारण दो प्रकार का होता है. एक मुख्य दूसरा निमित्त । परमात्मा की अर्हतावस्था की मूर्तियों की पूजा आदि के निमित्त से हमारी आत्म
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शुद्धि होकर हमारे कर्म नाश होते हैं इसलिये निमित्त कारण रूप में वे हमारे कर्मों के नष्ट करने वाले हैं" । किन्तु इस पर आप स्वयं ही पक्षपातरहित होकर विचार करें तो आपको मालूम हो सकता है कि समझवाले लोगों पर कि जिनकी ही मंग्या इस समय अधिक दिखाई देती हैं इसका वैसा ही असर पड़ता है, जिसका वर्णन ऊपर किया जाचुका है। वे उस निमित्त कारण के रहस्य को समन न पाकर उसको मुख्य कारण ही मान लेते हैं * तथा इसप्रकार अर्थ का अनर्थ होजाता है ।
* आजकल मंदिरों और तीर्थों के झगड़ों में लाखों रुपया स्वाहा हो रहा है वह किसी से छिपा नहीं है । हमारी धर्मान्धता और पूजा सिद्धान्त से अनभिज्ञताही इसका कारण हैं। जिन मूर्तियों की स्थापना का उद्देश्य श्रपना और दूसरे लोगों का आत्मकल्याण करने का था और जिनके गुणों के चितवन से हर एक मनुष्य स्वतंत्र होकर अपना आत्मकल्याण कर सकता था उन्होंको आजकल जिनके कब्ज़े में वे आजाती हैं व ही अपनी मिल्कियत समझने लग जाते हैं और उनकी सेवा करने और द्रव्य (जल चंदनादि । चढ़ाने की व्यर्थ की बाहरी आडंबर की बातों के लिये, जिनमें कोई धार्मिक तत्व नहीं है, लड़ इ.र विश्वमंत्री के स्थान में कलह का प्रचार करते हैं । यदि आज
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हम इस आडम्बर की ( जो धर्म का श्रावश्यक अग नहीं है ) छोड़ तो इस कलह का नाम भी न रहे और लाखों रुपये का जो मुकदमेबाजी और इस आईवर में दुरुपयोग हो रहा है वह न होने पाये।
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समझ में नहीं आता कि ऐसी कौनसी आवश्यकता है जिसके लिये निमित्त कारम को हद से ज्यादा महत्व देकर असली कारण के महत्व को इतना गिरा दिया जा रहा है । अतः वर्तमान परिस्थिति में यदि वे, उन मूर्तियों के नाम पर जिनको उद्देश्य रूप से वे केवल वीतराग परिणामों की प्राप्ति के लिये ही पूजते हैं, उपासना की असलियत कोन समझ सकने से व्यर्थ की छोटी २ बातों के लिये लड़ कर बजाय वीतराग परिणाम के कषाय को मोल लेते हैं, जाति के हजारों बच्चों के, उचित शिक्षा न मिल सकेन से, खोमचे बचते फिरते रहने और पांच २ रुपये की दुकानों पर झाडू देनेकी नोकरी के लिये लालायित रहन पर भी, उनकी शिक्षा श्रादि उपयोगी कार्यों में खर्च न करके केवल मंदिरा(जहां पहिल से हा बहुत काफी रुपया होता है और सत्ताधारी पटेलों के घरू कार्यों में काम आता रहता है ) और प्रतिष्ठानों में व्यय करने में ही धर्म समझते हैं तो आश्चर्य ही क्या है !
समाज के अच्छे२ समझदार व्यक्तियों को भी आमतौर से भगवान की पूजा के लिये मंदिरों में सामग्री भेजते देखा जाता है जिसके द्वारा यातो दूसरे लोग पूजा करते हैं और या नौकर । हम पूछते हैं कि जिस पूजा का उद्देश्य अरहंतों के गुणों
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के चितवन के परिणामम्प से होने वाली भावों की निर्मलता है क्या उस उद्देश्य की प्राप्ति केवल मामग्री भंजन मात्र से ही होजाती हैं अथवा क्या चार प्रकार के दोनों में से किसी भी प्रकार के दान में उसकी गिननी की जासकती है ? कैमा घोर पतन है ! जैन धर्म के अनुमार यह अंधर नहीं है कि शुभ भाव तो कोई करे और उसके फलस्वरूप पुण्य का बंध किमी दूमो ही व्यक्ति के माथ होजावे । पूजन में परमात्मा के गुणों के म्मरण मे जो पवित्रता आनी है और पापा म रक्षा होनी है उसका लाभ उभीको हो सकता है जो पूजन के द्वाग उनके गुणों का स्मरण करता है किन्तु फिर भी कितना जबरदस्त मिथ्यात्व फैला हुआ है कि चाहे उनके गुणों का, समना और पूर्ण अनुराग सहित, चितवन ५ मिनट के लिये भी न करत हों तो भी हमारा विश्वास यही है कि केवल भक्तिपूर्वक पूजा की सामग्री भजदन मात्र से ही हमारे पुण्य बंध होजायेगा । वास्तव में देखाजावे तो उसका अहंत तो खाते नहीं हैं इसलिये उसका उपयोग आपके कथनानुसार मान भी लिया जावे तो पूजा में मन को एकाग्र करने का ही होसकता है नथा जो शुभ कर्मों का बंध
और पूर्व कर्मों की निर्जरा इस प्रकार होती है वह एकाग्रता के साथ उनके गुणों के चितवन से उत्पन्न हुए शुद्ध भावों
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से ही होती हैं, अकेला द्रव्य जो हम सब पूजा के लिये मंदिरों में भेजने हैं और जो रुपया मंदिरों के अनावश्यक निर्माण व सजावट आदि में व्यय करते हैं वह कुछ भी कार्य कारी नहीं होमकना । इसकी अपेक्षा, जो लाखों रुपया, मन्दिरों की पूजा में व्यय किया जाता है और प्रतिमाओं में, केसरियानाथ जी के कंसर चढान में*तथा पुन वीतराग मूर्तियों का आंगा और जेवर आदि से सजाने में, पानी की तरह बहादिया जाता है वही यदि जानि के गरीव बालकों की धार्मिक और लौकिक शिक्षा, विधवाओं की रक्षा और दूसरे लोगों में जैनधर्म की प्रभावना ( मामयिक ढंगसे) करने में व्यय किया जावे तो बहुत कुछ धर्म और जाति की उन्नति होसकती है । शिक्षा ही सब से अधिक आवश्यक वस्तु है क्योंकि विना धार्मिक तत्वों के ज्ञान के, सूत्रजी''भक्तामरजी' का पाठ और पूजा आदि सब धार्मिक क्रियाएँ केवल अंध
करियानाथजी पर केसर चढाने में जा रुपया प्रति वर्ष स्वाहा किया जाना है उसका यदि सदुपयोग किया जाष तो उससे निस्संदेह सैकड़ों विद्यार्थी जैनधर्म की शिक्षा पाकर निधर्म की उन्नति में हाथ बंटा मकन है। किन्तु यह तभी संभव हो सकता जब हम अपन ज्ञानरूपी नेत्र पर बंधी हुई अंधविश्वास की पट्टी को हटाकर देखना सीखें।
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श्रद्धा से और बिना उनका मतलब समझ हुए ही की जाती हैं । एसी अंध-श्रद्धा से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती देखी गई है क्योंकि लोग धर्म के असली तत्वों को न समझ सकने में धर्म के नाम पर बड़ २ अनर्थ कर डालने हैं। अतः अंध श्रद्धा और अज्ञान को मिटान के लिय जितना होसके उतना ही उद्योग और रुपया व्यय करना चाहिए तथा ऐमी कोई भी क्रियाएँ और आडम्बर-पूर्ण-कार्यों का रिवाज समाज में प्रचलित न होने देना चाहिए, जिनके कारण मिथ्यात्व की वृद्धि हो; क्योंकि यद्यपि यह ठीक है कि हम मनुष्यों को ज्ञानवान बनाने का प्रयत्न करें किन्तु इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि किसी भी कार्य का सीदासादा रूप न रख कर उसको इतना चक्करदार बनादें कि लोग उसके असली तत्व को भी समझने में असमर्थ होजावें।
___ अब उन जैन विद्वानों में जो पुरानी लकीर को पीटते रहने में ही धम समझने रहत हैं और जिनको प्रत्येक नवीन बात में अधर्म की बू आती है, हमारा निवेदन है कि महानु भावो ! व्यवहार धर्म की क्रियाओं में देश काल, भाव की परिस्थिति के अनुमार हमेशा में परिवर्तन होता आया है
और हमेशा होता रहेगा । और तो क्या, हमारे पृभ्य तीर्थकरों ने भी देश, काल भाव की आवश्यकता का विचार करके
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अपना उपदेश भिन्न प्रकार में दिया है जो श्री स्वामी के प्रसिद्ध ग्रंथ मृलाचार की निम्नलिखित प्राकृत गाथा मे प्रकट है:
बाची तिश्रयग मामादयं संजम उद्यदिति । achar वा पुरण भरावं उसही य वीरोय ।। ७-३२ ।।
जिन से लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत वाईस नीर्थंकरों सामायिक संयम का और ऋषभदेव तथा महावीर भगवान
स्थापना संगम का उपदेश दिया है । वेही याचार्य आगे लिखत हैं:- प्राचक्खिटुं विभजितुं विष्णादु चाचि मुहदर होदि । एंडुन कारन दु महत्वदा पंच पण्णत्ता ॥ ३३ ॥
दुध हिरो नह सुट्ट दुरगुपालया । रिमाय पच्चिमा विद्दु कप्पा कष्पं गा जागति ॥ ३४ ॥ जिसका आशय यह है कि पांच महात्रतों (छेदोपस्थापना) का कथन इस कारण किया गया है कि इनके द्वारा सामायिक का दूसरों को उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना और अलहदा नौर मे भावना में लाना सुगम होजाता है। आदि तीर्थ में शिष्य अत्यंत सरल होने से मुश्किल से शुद्ध किये जाते हैं, अंतिम नाथ में अत्यंत व होने में कठिनाई से निवाद करते हैं। साथही उन दोनों समयों के शिष्य योग्य अयोग्य को नहीं जानते इस लिये आदि और अंत के तीर्थ में दोपस्थापना (पंच महावन)
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के उपदेशकी भावश्यकता हुई।
इममे प्रकट है कि प्रत्येक जैन तीर्थकर ने अपने ममय की आवश्यकता के अनुसार, उम ममय के मनुष्यों (उपदेशपात्रों ) की योग्यता का विचार करके उमके उपयोगी वैमाही उपदेश तथा व्रतनियमाद का विधान किया है, परन्तु वह उपदेश भिन्न : प्रकार का होते हुये भी उद्देश्य मब का वही एक 'आन्मा मे कर्म मल को दूर करके उसे शुद्ध और सुखी बनाना' ही था | भगवान महावीर के बाद के प्राचार्यों को भी अपने अपने समय की आवश्यकता के अनुमार धर्म की क्रियाओं में परिवर्तन करना पड़ा है। श्रावक के मूलगुणों को ही लीजिये, जहां स्वामी समंतभद्र ने अपने ग्नकरडश्रावकाचार में मद्य, मांस और मधु के त्याग और पंच अणुव्रत रूप में अष्ट मूल गुणों का विधान किया है वहां दूसरे आचार्यों ने मद्य, मांम मधु और पंच उदंबर फलों के ही त्याग को अष्ट मूलगुण मान लिया है । इस प्रकार और भी कई बातों में ममयानुमार परिवर्तन होता रहा है जिसका अब तक के, प्रत्येक ममय के प्रसिद्ध २ आचार्यों के ग्रंथों के देखने से अच्छी तरह दिग्दर्शन होसकता है। खेद है कि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के अटल नियम ____परिवर्तन से हमारा अभिप्राय उस परिवर्तन से है जो प्रत्येक समय में उस समय के उपदेशपात्र मनुष्यों की बुद्धि विचार, योग्यता आदि के अनुसार उस समय के लिये भावश्यक होता है नथा जैसा अनावश्यक परिवर्तन, पिछले समय
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की सत्यता पर विश्वास रखने वाले हम जैनी भी आज ऐसे मूर्ख बने हुये हैं कि हम यह तक विचार करने की कोशिश नहीं करते कि धर्म जो भावरूप से अनादि और कभी नाश न न होने वाला है, पर्याय रूप से परिवर्तन शील ही हैं अर्थात यद्यपि नि धर्म सर्वदा वही रहता है तो भी निश्चय धर्म के मूल भाव के उद्देश्य की पूर्ति के लिये बनाई हुई व्रत नियमादि रूपक्रियामें समय के अनुसार परिवर्तित होती ही रहती हैं। अतः पर्याय परिवर्तन में धर्म का नाश न समझ लेना चाहिये क्योंकि निश्चय धर्म की व्यवहारधर्मरूप पर्याय का सर्वदा एकसा रहना नितांत असंभव है। इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि जिस उद्देश्य की पूर्ति उस क्रिया ने अपने समय में की हो उसी की पूर्ति उसकी नवीन पर्याय भी करने में पूर्ण समर्थ हो । किन्तु आज हमारी यह अवस्था होगई है कि इसी परिवर्तन का अनादर करके पूजा और प्रतिष्टाओं के नाम पर प्रति वर्ष हजारों लाखों रुपया व्यर्थ बरबाद कर रहे हैं !
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के कई आचार्य नामधारी भट्टारकों ने, करके जन धर्म के रूप को विकृत कर दिया है जैसा परिवर्तन किसी भी काम का नहीं होता । इसीप्रकार एक बार किया हुआ आवश्यक परि.. वर्तन भी उस परिस्थिति के बदल जाने पर बिलकुल निरुपयोगी होकर उलटा हानिकारक बन जाता है जैसा कि मूर्तिपूजा का प्रचलित ढंग |
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* इसमें कोई शक नहीं कि पूजा और प्रतिष्ठा का प्रचलित ढंग भी किसी समय में उस समय के लिये आवश्यक समझ कर ही ग्रहण किया होगा परन्तु वर्तमान समय के लिये यह बिलकुल निरुपयोगी हो रहा है ऐसा मानन में किसी भी विचारशील व्यक्ति को आपति नहीं होनी चाहिये जब समय ने हमारी भाषा, पहनाव, रहनसहन आदि प्रत्येक कार्य को बदल दिया तो इन आवश्यक विषयों में भी परिवर्तन करने से हम इतने क्यों डरते हैं? हमें चाहिये कि प्रत्येक पुरानी क्रिया को नवीनता के सांचे में ढाल कर, सामग्रिक और उपयोगी बना लेवें क्योंकि यदि मूल उद्देश्य की पूर्ति
* प्रतिष्ठा श्रादि प्रभावना का अंग है और उसका उद्देश्य नाटक के ढंग पर तीर्थंकरों के जीवन चरित्र का लोगों पर प्रभाव डालना है । उस समय के मनुष्यों के जैसे विचार हाँ और जिस ढंग को अमल में लान से वे प्रभावित हो सकते हो. प्रतिष्ठा आदि को भी समयानुसार वैसा ही रूप देते रहना चाहिये। जिस प्रकार न्यायशास्त्र की युक्तियों से समझने वाले पुरुष का उदाहरणों से समझान का कोई फल नहीं होता उदाहरणों से समझने जितनी सी ही बुद्धि रखने वाले का न्याय शास्त्र के द्वारा समझाना निरर्थक होता है उसीप्रकार वर्तमान समय के के मनुष्य जिन प्रभावना पद्धति का प्रयोग करने से प्रभावित होसकते हो उसे प्रयोग न करके, वही अपनी पुरानी लकीर पीटते रहने का परिश्रम निष्फल होगा !
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में उमस कोई बाधा नहीं पड़ती तो उस परिवर्तन को किसी भी नरह बुरा नहीं कहा जासकता । याद गखिये : संसार का यह नियम है और इतहास इसका साक्षी है कि जो समय की
आवश्यकता के अनुसार अपने ढंग का नहीं बदलत और अपनी उमी पुरानी लकीर को पाटन रहते हैं उनका अवश्य नाश हो
जाता है।
के के म.. पति
धमानुस। वन करना हा, उनकी पूजा है तथा जल चंदन आदि अध्य
और इसीतरह और भी आडम्बर जो अाजकल किया जाता है वह मय इसके लिये अनावश्यक है। जिसप्रकार परिस्थिति से लाचार होकर आपन(नियों ने ) इस आडम्बर को ग्रहण किया उसीप्रकार अब परिस्थिति बदल जाने पर उमे त्याग दन में ही बुद्धिमानी है । आप लोगों के हृदयों में यह बात बैठी हुई है कि बिना जलचंदनादि द्रव्य के सहारे पूजा होही नहीं सकती इमकारण इसमें कोई संदेह नहीं कि आप इम लग्न को पढ़ कर लेखक को पूजा का विरोधी ही ममझेंगे । किन नमक अपने आपको ऐसा नहीं समझता। यह अरहंतों की पूजा. का पूर्ण पक्षपाती है और उसके विचार से प्रत्येक आध्यात्मिक चांग के दो व्यक्ति का काय है कि वह निर्य घरहनों
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की पूजा किया करे। किन्तु वह पूजा ऐसी है जो बिना कि प्रकारके जलचंदनादि द्रव्य के आडम्बर के एक गरीब से. safe के द्वारा भी, जितना सा उसे अवकाश मिलसके उत डी से समय में, आसानी से की जासकती है। अतः लेखक का उद्देश्य पूजा का विरोध करने का नहीं प्रत्युत वर्तमान ॐ समाज की प्रचलित पूजा-पद्धति में घुसी हुई बुराइयों दिग्दर्शन करने
त
है उन पर आप लोग भी यदि पक्षपात गर विचार करेंगे । को भी विश्वास होजावेग
की पूजा के लिए द्रव्यादि आडम्बर बिलकुल
.
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affe यह लेख वर्तमान जैन समाज को लक्ष्य क लिखा गया है तथापि उसकी लेखन शैली इस ढंग की र गई है कि अन्य धर्मावलंबी भाई भी पूजा मिद्धान्त को समझ इससे लाभ उठा सकें तथा जैनियां की मूर्तिपूजा विषयक उनमें हम फैली हुई है वह दूर होजावे ।
समाज हितैषी विद्वानों को चाहिये कि समय मे अपनी मौत को भंग करके समाज का वासना विषयक दूर करने के लिए जी जान से प्रथमशाल हो जाओ ।
फोटा, ११-२००६ ई०
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