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शेप श्रात्माएँ (उपरोक्त अवस्था के प्राप्त न होने तक ) घोर बनों से युक्त पर्वतों से वेष्टित स्थान में होकर गुजरने वाले उस यात्री के समान भ्रमण करती रहती हैं जो अंधकार युक्त निशा में अपने रास्ते का ठीक २ पता न लगने से पथ
क्रिया होती है उसी प्रकार के कर्म । अचेतन) परमाणु उसकी तरफ़ श्राकर्षित होते हैं इसको ' श्राश्रध' कहते हैं । तथा वे कर्म कपाय (क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी भावों) के तीव्र या मंद होने की अपेक्षा से कम या अधिक समय के लिये श्रत्मा को बांध लेते हैं, इसको 'बंध' कहते हैं। इस बंधन को तोड़ने के दो उपाय हैं (१) संवर और (२) निर्जरा । 'संघर' से नवीन कर्मों का श्राव नहीं हो पाता है और 'निर्जरा' से पूर्व में सम्बन्ध को प्राप्त कर्मों से छुटकारा मिल जाता है। इसी बात को हिंदू धर्म वाले कह सकत हैं कि संसार प्रवृत्ति (आश्रव) को वैराग्य द्वारा रोक कर सम्यासादि धारण करने से कर्मों का दाय हो जाता है । श्रात्मा के स्वरूप के चितवन तथा चारित्र पालन आदि से 'संवर होता है । शान श्राराधना और ध्यान आदि अंतरंग और बाहय तपस्या से कर्मों की निर्जरा होती है और जब जीव कर्मों ( अचेतन पदार्थ के आवरण) से पूर्ण रूप से छुटकारा पा जाता है तब उस अवस्था को उसकी 'मोक्ष' कहते हैं । कर्म ( अवेतन ) परमाणु आठ प्रकार के होते हैं (१ ज्ञानावरणी, जिनने आत्मा के ज्ञान गुण को ढँक रक्ता है (२) दर्शनावरणी, ओ श्रात्मा के दर्शन गुण को ढँक दें (३) वेदनीय, जो सांसारिक सुख दुःख की सामग्री जोड़कर