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के चितवन के परिणामम्प से होने वाली भावों की निर्मलता है क्या उस उद्देश्य की प्राप्ति केवल मामग्री भंजन मात्र से ही होजाती हैं अथवा क्या चार प्रकार के दोनों में से किसी भी प्रकार के दान में उसकी गिननी की जासकती है ? कैमा घोर पतन है ! जैन धर्म के अनुमार यह अंधर नहीं है कि शुभ भाव तो कोई करे और उसके फलस्वरूप पुण्य का बंध किमी दूमो ही व्यक्ति के माथ होजावे । पूजन में परमात्मा के गुणों के म्मरण मे जो पवित्रता आनी है और पापा म रक्षा होनी है उसका लाभ उभीको हो सकता है जो पूजन के द्वाग उनके गुणों का स्मरण करता है किन्तु फिर भी कितना जबरदस्त मिथ्यात्व फैला हुआ है कि चाहे उनके गुणों का, समना और पूर्ण अनुराग सहित, चितवन ५ मिनट के लिये भी न करत हों तो भी हमारा विश्वास यही है कि केवल भक्तिपूर्वक पूजा की सामग्री भजदन मात्र से ही हमारे पुण्य बंध होजायेगा । वास्तव में देखाजावे तो उसका अहंत तो खाते नहीं हैं इसलिये उसका उपयोग आपके कथनानुसार मान भी लिया जावे तो पूजा में मन को एकाग्र करने का ही होसकता है नथा जो शुभ कर्मों का बंध
और पूर्व कर्मों की निर्जरा इस प्रकार होती है वह एकाग्रता के साथ उनके गुणों के चितवन से उत्पन्न हुए शुद्ध भावों