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से ही होती हैं, अकेला द्रव्य जो हम सब पूजा के लिये मंदिरों में भेजने हैं और जो रुपया मंदिरों के अनावश्यक निर्माण व सजावट आदि में व्यय करते हैं वह कुछ भी कार्य कारी नहीं होमकना । इसकी अपेक्षा, जो लाखों रुपया, मन्दिरों की पूजा में व्यय किया जाता है और प्रतिमाओं में, केसरियानाथ जी के कंसर चढान में*तथा पुन वीतराग मूर्तियों का आंगा और जेवर आदि से सजाने में, पानी की तरह बहादिया जाता है वही यदि जानि के गरीव बालकों की धार्मिक और लौकिक शिक्षा, विधवाओं की रक्षा और दूसरे लोगों में जैनधर्म की प्रभावना ( मामयिक ढंगसे) करने में व्यय किया जावे तो बहुत कुछ धर्म और जाति की उन्नति होसकती है । शिक्षा ही सब से अधिक आवश्यक वस्तु है क्योंकि विना धार्मिक तत्वों के ज्ञान के, सूत्रजी''भक्तामरजी' का पाठ और पूजा आदि सब धार्मिक क्रियाएँ केवल अंध
करियानाथजी पर केसर चढाने में जा रुपया प्रति वर्ष स्वाहा किया जाना है उसका यदि सदुपयोग किया जाष तो उससे निस्संदेह सैकड़ों विद्यार्थी जैनधर्म की शिक्षा पाकर निधर्म की उन्नति में हाथ बंटा मकन है। किन्तु यह तभी संभव हो सकता जब हम अपन ज्ञानरूपी नेत्र पर बंधी हुई अंधविश्वास की पट्टी को हटाकर देखना सीखें।