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श्रद्धा से और बिना उनका मतलब समझ हुए ही की जाती हैं । एसी अंध-श्रद्धा से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती देखी गई है क्योंकि लोग धर्म के असली तत्वों को न समझ सकने में धर्म के नाम पर बड़ २ अनर्थ कर डालने हैं। अतः अंध श्रद्धा और अज्ञान को मिटान के लिय जितना होसके उतना ही उद्योग और रुपया व्यय करना चाहिए तथा ऐमी कोई भी क्रियाएँ और आडम्बर-पूर्ण-कार्यों का रिवाज समाज में प्रचलित न होने देना चाहिए, जिनके कारण मिथ्यात्व की वृद्धि हो; क्योंकि यद्यपि यह ठीक है कि हम मनुष्यों को ज्ञानवान बनाने का प्रयत्न करें किन्तु इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि किसी भी कार्य का सीदासादा रूप न रख कर उसको इतना चक्करदार बनादें कि लोग उसके असली तत्व को भी समझने में असमर्थ होजावें।
___ अब उन जैन विद्वानों में जो पुरानी लकीर को पीटते रहने में ही धम समझने रहत हैं और जिनको प्रत्येक नवीन बात में अधर्म की बू आती है, हमारा निवेदन है कि महानु भावो ! व्यवहार धर्म की क्रियाओं में देश काल, भाव की परिस्थिति के अनुमार हमेशा में परिवर्तन होता आया है
और हमेशा होता रहेगा । और तो क्या, हमारे पृभ्य तीर्थकरों ने भी देश, काल भाव की आवश्यकता का विचार करके