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हो हमें 'सर्प ' नाम के एक विचित्र जहरीले जन्तु का बोध होता है, किन्तु ही सर्प की तदाकार मूर्ति के बने उससे कहीं अधिक होता है ठीक उसीप्रकार परमात्मम्वरूप के बोधक शब्दों के द्वारा परमात्मा का जो बोध हमको होता है वह
की तस्था की तदाकार मूर्तियों के देखने पर और भी after start । इसीलिये आजकल के विद्वान शिक्षाrit में बालकों को Direct method के अनुसार चित्रों और मृतियों के द्वारा शिक्षा देना अधिक पसंद करते हैं। वे इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि किसी भी वस्तु उदाहरण के लिये, बारहसिंगा की केवल शब्दों में गुण, आकार और ariae इत्यादि कुल विशेषताएं बताने पर जो प्रभाव उसका बालकों की समझ पर पड़ सकता है उसकी अपेक्षा farar ही गुणा अधिक प्रभाव उसके चित्र या तदाकारमूर्ति को दिखाकर वे सब बातें शब्दों द्वारा समझाने पर पड़ता है । संसार में सदा से अल्प विचारशक्ति वाले पुरुषों की ही संख्या अधिक रही है इमीलिये जैनाचार्यों ने भी उपासना के लिये हमारे आदर्श, श्रहंतों की नहाकार मूर्तियों की आवश्यकता पर अधिक जोर दिया है। हम सब परमात्मा, अल्लाह, CGround, ईश्वर ॐ आदि का उच्चार करते हैं, क्रॉस,
श्रादि चिन्हों
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