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इस पर प्रथम विचार किया जाचुका है कि उपासना परमात्मा के गुणों के चितवन ( ध्यान ) के रूप में की जानी चाहिये । किन्तु गृहस्थों का चित्त (जो सांसारिक प्रपंचों में फंसे रहते हैं ) सर्वदा व्यग्र और अस्थिर रहता है अतः उपासना के विषय में एकाग्र करने में प्रथम हमें उसे शांत (समभावरूप)करना पड़ता है। यह कार्य बारह प्रकार की भावनाओं तथा वैराग्य
* उपरोक्त चारह भावनाएं य हैं:- (१) अनित्य-जीव आदि समस्त वस्तुएं पर्याय रूप से श्रानन्य (नाशवान ) हैं अतः उन क्षाक्षिक पर्यायों से मोह न करना चाहिय(२) अशरण- इस जांध को दुःख. मरण से बचा सकन की सामर्थ्य रखनवाला काई नहीं है, जैसे कम करेगा वैसा फल भोगना ही पंडगा (३)संसार भावना-अनेक जन्मी में यह जवि अच्छे से अच्छे सुख भोग चुका फिरभी नतो इलकी चिपय तृपला मिटी और न शांति मिली तःमुख की लालसास इन इन्द्रिय जनित क्षणिक सुखो के पीछे दोड़ना व्यर्थ है (४) एकत्व-मेरे इस जीव को भो. ही जन्मना, मरनावदुःख भोगना पड़ता है और वह सबसे निराला एक धानन्दमई और ज्ञान प्रादि गुणों से युक्त है। (५) अन्यत्वमेरे आत्मा से शरीरादि व सर्व ही श्रात्माएं व अन्य पांचों इग्य बिलकुल भिन्न है। (६) अशुचि- यह शरीर मलमूत्र से भरा है और इसके रोमर से मल बहता रहता है ऐसे शरीर से ममत्व त्याग कर अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये। (७)श्राम-किस प्रकार कमाँ का जीव की तरफ भान