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के उपदेशकी भावश्यकता हुई।
इममे प्रकट है कि प्रत्येक जैन तीर्थकर ने अपने ममय की आवश्यकता के अनुसार, उम ममय के मनुष्यों (उपदेशपात्रों ) की योग्यता का विचार करके उमके उपयोगी वैमाही उपदेश तथा व्रतनियमाद का विधान किया है, परन्तु वह उपदेश भिन्न : प्रकार का होते हुये भी उद्देश्य मब का वही एक 'आन्मा मे कर्म मल को दूर करके उसे शुद्ध और सुखी बनाना' ही था | भगवान महावीर के बाद के प्राचार्यों को भी अपने अपने समय की आवश्यकता के अनुमार धर्म की क्रियाओं में परिवर्तन करना पड़ा है। श्रावक के मूलगुणों को ही लीजिये, जहां स्वामी समंतभद्र ने अपने ग्नकरडश्रावकाचार में मद्य, मांस और मधु के त्याग और पंच अणुव्रत रूप में अष्ट मूल गुणों का विधान किया है वहां दूसरे आचार्यों ने मद्य, मांम मधु और पंच उदंबर फलों के ही त्याग को अष्ट मूलगुण मान लिया है । इस प्रकार और भी कई बातों में ममयानुमार परिवर्तन होता रहा है जिसका अब तक के, प्रत्येक ममय के प्रसिद्ध २ आचार्यों के ग्रंथों के देखने से अच्छी तरह दिग्दर्शन होसकता है। खेद है कि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के अटल नियम ____परिवर्तन से हमारा अभिप्राय उस परिवर्तन से है जो प्रत्येक समय में उस समय के उपदेशपात्र मनुष्यों की बुद्धि विचार, योग्यता आदि के अनुसार उस समय के लिये भावश्यक होता है नथा जैसा अनावश्यक परिवर्तन, पिछले समय