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* इसमें कोई शक नहीं कि पूजा और प्रतिष्ठा का प्रचलित ढंग भी किसी समय में उस समय के लिये आवश्यक समझ कर ही ग्रहण किया होगा परन्तु वर्तमान समय के लिये यह बिलकुल निरुपयोगी हो रहा है ऐसा मानन में किसी भी विचारशील व्यक्ति को आपति नहीं होनी चाहिये जब समय ने हमारी भाषा, पहनाव, रहनसहन आदि प्रत्येक कार्य को बदल दिया तो इन आवश्यक विषयों में भी परिवर्तन करने से हम इतने क्यों डरते हैं? हमें चाहिये कि प्रत्येक पुरानी क्रिया को नवीनता के सांचे में ढाल कर, सामग्रिक और उपयोगी बना लेवें क्योंकि यदि मूल उद्देश्य की पूर्ति
* प्रतिष्ठा श्रादि प्रभावना का अंग है और उसका उद्देश्य नाटक के ढंग पर तीर्थंकरों के जीवन चरित्र का लोगों पर प्रभाव डालना है । उस समय के मनुष्यों के जैसे विचार हाँ और जिस ढंग को अमल में लान से वे प्रभावित हो सकते हो. प्रतिष्ठा आदि को भी समयानुसार वैसा ही रूप देते रहना चाहिये। जिस प्रकार न्यायशास्त्र की युक्तियों से समझने वाले पुरुष का उदाहरणों से समझान का कोई फल नहीं होता उदाहरणों से समझने जितनी सी ही बुद्धि रखने वाले का न्याय शास्त्र के द्वारा समझाना निरर्थक होता है उसीप्रकार वर्तमान समय के के मनुष्य जिन प्रभावना पद्धति का प्रयोग करने से प्रभावित होसकते हो उसे प्रयोग न करके, वही अपनी पुरानी लकीर पीटते रहने का परिश्रम निष्फल होगा !