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४५ और 'रम पर निप्पन भाव में विचार करने पर इममें मंदह नहीं रहता कि इसके बढ़ाने में हमारी भाव पूजा में हमें कोई भी लाभ नहीं पहुंचता तथा प्रार्चान समय में भी जैनियों में इम ढंग की द्रव्यपूजा नहीं कीजानी थी किन्तु हमारी घटनी के ममय में ही हमारे हिंद भाइयों का अनुकरण करके उनकी और बढ़त मी बातों के मात्र हमने इसे भी अपना लिया है।
अन्न उन बुराइयों का दिग्दर्शन कग देना भी उचित होगा जो. हमारी जैन समाज में इम द्रव्यपूजापद्धति के कारण. उत्पन्न होगई हैं । यद्यपि जैन धर्म इस बात को नहीं मानता है कि अरहंत, जिनकी मन्दिरों में प्रतिमाएं हैं वे, हमें सुख दुःग्य देते या हमार कमी को नम कर देते हैं तो भी जिस श्रेल के मनुष्यों के सुधार के निमित प्रचलित द्रव्य पूजा की आवश्यकना बताई जानी है उम श्रेणी के मनुष्यों के चित्त पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। यह बात मानी हुई है कि प्रत्येक धर्म के मानने वालों में बहुत थोड़े ही मनुष्य प्रेम होते हैं जो अपने धर्म को, उमके धार्मिक तत्वों को समझ कर ही, ग्रहण किंय हुये हों तथा ऐसे मनुष्यों की ही संख्या अधिक होती है जो बिना उसके तत्वों को समझे केवल कुल परंपरा के कारमा उम धर्म को मच्चा समझ कर उसके अनुयायी