Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 47
________________ कार द्वन्य पूजा के द्वाग भाव पूजा में मन ज्यादा टहर मकना हे, भा ठीक नहीं है । यहां विचारने की बात यह है कि एकाप्रता सम्पादन का जो गुण बाजे की मुरताल में होता है वही ज्या द्रव्य में भी हा मकता है ? वाजे की सुरताल ( संगीतध्वनि ) का मनमोहक गुण नो लोक प्रमिद्ध है और उसमें पनी शक्ति है कि मनुष्य की शकल देखते ही दूर भागने वाले मृग तथा सर्प आदि जन्तु भी उम मधुर ध्वनि मे मोहित होकर अपन पकड़न वाले की कोई परवा न करने हुये उसके मनने में दनचिन होकर जहां के नहां बड़े रह जाते हैं और अपनी स्वतंत्रता खो बैठते हैं । अनः अष्ट द्रव्य को बाजे की सुरताल के समान मानना ठीक नहीं है। उदाहरण के लिये देर मनुष्यों का विचार कीजिय जिनमें से एक नो गाना गा रहा है और दूसरा अपने इप्रदेव की पूजा बोल रहा है। दोनों के लिये एक २ वाजे का प्रबन्ध कर दीजिये। बाजे की ध्वनि में जिस प्रकार वह गाने वाला गाने में मम्न होजाता है उसीप्रकार वह पूजा करने वाला भी उम पूजा की भावनाओं में लीन होजाता है । किन्तु दोनों को बाजे के स्थान में अष्ट द्रव्य देवीजिये और उन्हें समझाइये कि इसस तुम्हारा मन ज्यादा लगगा-फिर देखना वह गाने वाला आपकी इस बात का क्या उत्तर देता है ? मतलब यह है कि द्रव्य में मन की एकाग्रता

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