Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 12
________________ विचालित नहीं हुए, जिनने कर्मावरण मे पैदा हुए अज्ञान अंधकार को दूर करके अपनी असली (शुद्ध) अवस्था प्राम करली है और हम असहाय अवस्था में डूबत हुए प्राणियों को सन्चे सुख का मार्ग बनाकर हमारा अत्यंत उपकार किया है नथा जिनने हमारे मामने अपना आदर्श रग्यकर हमारे रास्ते को सुगम बनादिया है ऐसी महान आत्माओं के प्रति हमारे हृदयों में यदि आदर और प्रेम के भाव नहीं हैं, यदि हमारे हृदय उनकी भक्ति में सावित नहीं होरहे हैं और यदि उनको अपना आदर्श और पथप्रदर्शक मानकर उनके गुणों के चितवन में हमारा अनुराग नहीं है तो निस्संदेह कहना पड़ेगा कि मृगतृष्णा में पड़े हुए हम सुख की प्रानि के मार्ग से अभी बहुत दूर चक्कर लगा रहे हैं। अहंतों की भी ऐसी ही महान आत्माओं में गिनती है और उनके द्वारा जगत का जो असीम उपकार होता है उसक बदले में हम उनके प्रनि जितना आदर और कृतज्ञता प्रदार्शन करें वह सबकुछ तुच्छ है । जो लोग दूसरों के किये हुए उपकार को भुला देते हैं वे कृतनी कहलाते हैं और वे कभी भी उन्नति नहीं कर सकते, इसलिये ऐसी महान आत्माओं के प्रति आदर और कृतज्ञता प्रदर्शित करना हमारा परम कर्तव्य है।

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