Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 39
________________ ३ उनके भी सम्मानार्थ हमें कुछ न कुछ चढ़ाने को अवश्य लेजाना चाहिये और जो लोग रीते हाथ जाते हैं- समझलो कि उनके हृदयों में उनके प्रति कोई आदर भाव नहीं है" हमारी समझ में ऐसे उदाहरणों का प्रभाव बच्चों और मूखों पर ही पड़ सकता है, समझदारों पर नहीं क्योंकि राजा की उपमा उन वीतराग अरहंतों को नहीं लग सकती । राजा तो भेंट आदि के इच्छुक और लक्ष्मी के उपासक होते हैं और भेंट आदि करने पर हम से प्रसन्न होते हैं किन्तु उन जिनेन्द्र को न तो हमारी भेंट की ही इच्छा होती है और न चढ़ाने पर प्रसन्न और नचढ़ाने पर अप्रसन्न ही होते हैं अतः हमारा वह द्रव्य चढ़ाना व्यर्थ होता है । यदि राजा की उपमा उन पर लगादी भी जाव नो जिस प्रकार राजा के आगे, जिस वस्तु का वह बुरा समझ कर घृणा की दृष्टि से देखने लग जाता है वह वस्तु भेंट करने पर वह नाराज ही होगा इस भय से, ऐसी वस्तु को कोई में भेंट नहीं करता उसीप्रकार उन जिनेन्द्र के भी, जो तुधा तृषा आदि सर्व प्रकार की वेदनाओं से मुक्त हैं, जिनको किसी भी तरह की इच्छा नहीं है और जो सब वस्तुओं का त्याग करचुके हैं, उनकी इच्छा विरुद्ध (त्याग कीहुई ) वस्तुएं भेंट करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करना उनका अनादर और उपहास करने के समान है।

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