Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja Author(s): Virdhilal Sethi Publisher: Gyanchand Jain Kota View full book textPage 9
________________ निरंजन, निर्विकार आदि भिन्न २ नाम हैं। वह परमात्मा परम वीतरागी और शांत स्वरूप है, उसको किसी से राग या द्वेश नहीं है, किसी की स्तुति, भक्ति और पूजा से वह प्रसन्न नहीं होता और न किसी की निन्दा से अप्रसन्न । उसको न तो धनवान, विद्वान और उच्चवर्ण के लोगों से ही प्रेम है और न निर्धन, मूर्ख और नीच जाति के लोगों से, घृणा ।। सर्वज्ञता ( केवल शान ) की प्राप्ति होने पर जब तक देह का सम्बन्ध बना रहता है तब तक उनको 'अहंत' या जीवन मुक्त' कहते हैं और जव देह का सम्बन्ध भी छूट जाता है नव उनको 'सिद्ध' नाम से भूषिन किया जाता है। वे परमात्मा अहंतावस्था में सब जीवों को उनकी अात्मा का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय बताते हैं कि किसप्रकार ये जीव कमाँ के शिकंजे में फंसे हुए हैं इनसे छुटकारा पाने के उपाय क्या २ है तथा दुःख से निवृत्ति और सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है * * जिस प्रकार जीवका कमाँ (अजीव ) के साथ सम्बन्ध होता है और जिस प्रकार उनसे छुटकारा मिलता है उसका वैज्ञानिक वर्णन जैन धर्म इस प्रकार करता है । मन, वचन, काय (शरीर) की चंचलता के निमित्त से प्रात्मा की स्वाभाविक शाक्ति का काम होता है और उस समय उसकी जैसी भीPage Navigation
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