Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ लेखकके दो शब्द यों तो जैनधर्मका साहित्य विपुल है, किन्तु उसमें एक ऐसी पुस्तक को यामी थी जिसे पढकर जन-साधारण जैनधर्मका परिचय प्राप्त क नके । इस कमीको सभी अनुभव करते थे। उज्जनके सेठ लालचन्द ज. सेठीने तो ऐनी पुस्तक लिसनेवालेको अपनी ओरसे एक हजार रुपर। पारितोपिक प्रदान करनेकी घोषणा भी कर दी थी। मुझे भी यह कम बहुत सटका रही थी। नत मैंने इस ओर अपना ध्यान लगारा, जिसन फल स्वरूप प्रस्तुत पुस्तक तैयार हो सकी। ग प्रत्येक धर्मके दोस्प होते है-एक विचारात्मक और दूसवर आवारात्मक । प्रथम रूपको दर्शन कहते है और दूसरेको धर्म। " दर्शनके अभ्यासियोंके लिये दोनो ही रूपोंको जानना आवश्यक हैन्त सलिये मैने इस पुस्तकमें जैनधर्मके विचार और आचारका परिचारि तो कराया ही है, साथ ही साथ साहित्य, इतिहास, पन्यभेद, पर्व, तीर्थ क्षेत्र आदि अन्य जानने योग्य वातोंका भी परिचय दिया है, जिसे पढका प्रत्येक पाठक जैनधर्मके सभी अंगों और उपागोंका साधारण ज्ञान प्राप कर सकता है और उसके लिये इधर उधर भटकनेकी आवश्यकता नहीं रहती। इस पुस्तकमें जनवमसे सम्बन्ध रखनेवाले जिन विषयोंदा चर्चा की गई है, सब लोगोंको वे सभी विषय रुचिकर हों यह सम्मान नहीं है, क्योंकि-'भिन्नरुचिहि लोक'। इसीसे विभिन्न रुचिवार लोगोंको अपनी अपनी रुचिके अनुकूल जैनधर्मकी जानकारी प्राप्त कर सकनेका प्रयत्न किया गया है। भारतीय विद्वानोंकी प्राय यह एक आम मान्यता है कि भारतर प्रचलित प्रत्येक धर्मका मूल उपनिषद है । इस मान्यताके मूलमें हा तो श्रद्धामूलक विचारसरणिका ही प्राधान्य प्रतीत होता है । पुस्तक

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 343