Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 11
________________ दूसरे संस्करणके सम्बन्ध में जब मैने 'जैनधर्म' पुस्तकको लिखकर समाप्त किया तो मु स्वप्न में भी यह आना नही थी कि इस पुस्तकका इतना समादर होग और पहले संस्करण के प्रकागनके ६ माह बाद ही दूसरा संस्करण प्रका गित करना होगा । अनेक पत्र-पत्रिकाओं और लब्धप्रतिष्ठ विद्वानोने मुक्तकण्ठ उनको प्रशंसा की है। ऐसे विरले ही पाठक है जिन्होंने पुस्तकको पढ कर प्रत्यक्ष या परोक्षरूपमें उसकी सराहना नही की है। t काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी प्रख्यात शिक्षा संस्थाने दर्शन पास्त्र विषयक वी. ए. ( आनर्स) के परीक्षार्थियों के अध्ययन के लिए इसे स्वीकृत किया है। जैन कालिज वड़ीत आदि अनेक कालिजों श्री स्कूलोने जैनधर्मके अध्ययन के लिये इसे पाठ्यक्रमके रूपमें स्थान दिय है । इस तरह शिक्षा क्षेत्रमे भी प्रस्तुत पुस्तकको यथेष्ट स्थान ओ नाति मिली है । उज्जैनके साहित्यप्रेमी सेठ लालचन्द जी सेठीने ७५० ) का पुर स्कार देकर लेखकको पुरस्कृत किया है । } अनेक विद्वान् पाठकोने अपने कुछ उपयोगी सुझाव भी दिये है उनके अनुसार इस संस्करण में परिवर्तन और परिवर्धनके साथ साथ दो नये प्रकरण वढाये गये है— एक जैनकला और पुरातत्त्वने सम्बन्धमे और दूसरा जैनाचार्यो के सम्वन्धमे । तथा अन्तमे जैन पारिव भाषिक शब्दों की एक सूची भी दे दी गई है। प्रथम प्रकरणके लिखने मे मुनि श्री कान्ति सागर जी से विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है । जिन महानुभावोंने उक्त प्रकारसे मेरे उत्साहको बढ़ाया है उन सभीका आभार हृदयसे स्वीकार करता हूँ । वाश्विन—–२००६ } विनीत लेखक

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