Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 12
________________ तीसरे संस्करणके सम्बन्धम 'जैनधर्म का तीसरा सस्करण उपस्थित है। पिछले एक वर्षसे यह स्तक अप्राप्य थी। पाठको और पुस्तक-विक्रेताओके तकाजोके साथ लाहने भी आते थे। प्रकाशनकी सूचना देते ही पुस्तककी मांगें आनी शुरू हो गई और व्यग्रता भरे पत्र आने लगे-कवतक प्रकाशित होगी, 14 तो छप गई होगी, आदि। यह सव इस वातका सूचक है कि पाठकों की यह पुस्तक कितनी अधिक प्रिय है । अ०भा० राजपूत जैन सघने क सुझाव भेजा कि 'जनधर्म-क्षात्र धर्म-वीरधर्म है। ऐसा एक अध्याय तो सम्पूर्ण क्षत्रिय जातिके लिये पूर्णत आकर्षक हो, जिससे आजके आन्त एवं पथ-भ्रप्ट राजपूत पुन. सत्यके प्रकाशमें आ सकें, रखा ये, तथा पुस्तकका टाइटिल जैनधर्म (क्षात्रधर्म)-भारतका सार्वशिक सनातन सत्य आत्म धर्म' ऐसा रहे । तदनुसार इस सस्करणमें कुछ जैनवीर' शीर्षक एक नया अध्याय जोड़ दिया गया है। टाइटिल दलना कुछ जंचा नही, जनेतर पाठकोंको उसमे मिथ्या अहंकारकी आ सकती थी। : इस संस्करणमे अन्य भी कुछ सुधार किये गये है। इतिहास-भाग को पुन.व्यवस्थित किया गया है और उसमें 'कालाचूरि राज्यमें नैनधर्म' और 'विजयनगर राज्यमें जैनधर्म' दो नये शीर्षक जोडे ये है। विविध नामक प्रकरणके पूर्वभागको उससे अलग करके सामाजिक रूप' नामसे दिया गया है। तथा 'स्थानकवासी सम्प्रदाय और मूर्तिपूजा विरोधी तेरापन्थ सम्प्रदाय' को फिरसे लिखा गया क्योंकि उक्त सम्प्रदायो के व्यक्तियो की ओरसे कुछ सुझाव प्राप्त दए थे। माशा है पाठकोके लिये यह संस्करण और भी अधिक लाभप्रद साबित होगा। फा० ऋ० ११८ विनीत लेखक २०११ ।

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