Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 7
________________ अनेकान्तवाद या सप्तभङ्गी न्याय जैन दर्शनका मुख्य सिद्धान्त है प्रत्येक पदार्थके जो सात 'अन्त' या स्वरूप जैन शास्त्रों में कहे गये है उनको ठीक उसी रूपसे स्वीकार करनेमें आपत्ति हो सकती है। कुछ विद्वान् भी सातमे कुछको गौण मानते है । साधारण मनुष्यको यह समझने मे कठिनाई होती है कि एक ही वस्तुके लिए एक ही समय में है और नही है दोनो बाते कैसे कही जा सकती है । परन्तु कठिनाईक होते हुए भी वस्तुस्थिति तो ऐसी ही है। जो लेखनी मेरे हाथमें है वह मेजपर नहीं है । जिस बच्चेका अस्तित्व आज है उसका अस्तित् कल नही था । जो वस्तु पुस्तक रूपसे है वह कुर्सीरूपसे नही है । जे घटना एकके लिए भूतकालिक है वही दूसरेके लिए वर्तमानकी ओर I तीसरेके लिए भविष्यत्‌की है । अखण्ड ब्रह्म पदार्थ भले ही एकरस श्रौर ऐकान्तिक हो परन्तु प्रतीयमान जगत्मे तो सभी वस्तुएँ, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हों, अनैकान्तिक हैं । शङ्कराचार्य्यजीने इस बातको स्वीकार नही किया है इसलिए उन्होने मायाको सत् और असत्से विलक्षण, अथच अनिर्वचनीया कहा है । में सप्तभङ्गी न्यायः को तो बाकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमे जाना समझता हूँ परन्तु अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार करता । इसीलिए चिद्विलास में मैंने मायाको सत् और असत् स्वरूप, मत : अनिर्वचनीया माना है । अस्तु, सव लोग इन प्रश्नों की गहिराईमें न भी जाना चाहें तब मैं आशा करता हूँ कि इस सुबोध और उपादेय पुस्तकका आदर होगा ऐसी रचनाएँ हमको एक दूसरेके निकट लाती है। ऐसा भी कोई सम था जब 'हस्तिना पीड्यमानोऽपि न विशेज्जैनमन्दिरम्' जैसी उक्तिया ₹

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