Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 5
________________ प्राक्कथन मैजैनधर्मका अनुयायी नहीं हूं, इसलिए जब श्री कैलाशचन जैनने मुझसे जैनधर्मका प्राक्कथन लिखनेको कहा तो मुझको उन सङ्कोच हुआ। परन्तु पुस्तक पढ़ जानेपर सङ्कोच स्वत. दूर हो गया । यह ऐसी पुस्तक है जिसका प्राक्कथन लिखनेमे अपनेको प्रसन्नता होत है। छोटी होते हुए भी इसमें जैनधर्मके सम्बन्धकी सभी मुख्य बात. समावेश कर दिया गया है । ऐसी पुस्तकोंमें, स्वमत स्थापनके साथ सार, कही कही परमत दोषोको दिखलाना अनिवार्य-सा हो जाता है। कम से-कम अपने मतके आलोचकोंकी आलोचना तो करनी ही पड़ती है। प्रस्तुत पुस्तकमे, स्याद्वादके सम्बन्धमें श्रीशङ्कराचार्याने लेखकक' सम्मतिमें इस सिद्धान्तके समझनेमे जो भूल की है उसकी भोर सङ्क किया गया है । परन्तु कही भी शिष्टताका उल्लङ्घन नही होने पायः है। आज कल हम भारतीय इस बातको भूल से गये है कि गम्भीर, विषयोंके प्रतिपादनमे अभद्र भाषाका प्रयोग निन्ध है और सिद्धान्तका खण्डन सिद्धान्तीपर कीचड़ उछाले विना भी किया जा सकता है। यह पुस्तक इस विषयमें अनुकरणीय अपवाद है। भारतीय संस्कृतिक संवर्द्धनमें उन लोगोंने उल्लेख्य भाग लिया ह जिनको जैन शास्त्रोसे मूर्ति प्राप्त हुई थी। वास्तुकला, मूर्तिकला, वाडमय-सवपर ही जैन विचारोंकी गहिरी छाप है। जैन विद्वानों और श्रावकोंने जिस प्राणपणसे अपने शास्त्रोंकी रक्षा की थी वह हमारे इति

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