Book Title: Jain Dharm Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya View full book textPage 6
________________ शासकी अमर कहानी है। इसलिए जैन विचारधाराका परिचय शिक्षित मुदायको होना ही चाहिये। कुछ बाते ऐसी है जिनमे जैनियोको वभावत. विशेष अभिरुचि होगी। दिगम्वर-श्वेताम्बर विवादमे सवको वारस्य नहीं हो सकता और न सब लोगोको उन खाद्याखाद्य व्रतादिके नयमोपनियमोकी जानकारीकी विशेष अवश्यकता है। परन्तु जो लोग चर्म और दर्शनका अध्ययन करते है उनको यह तो जानना ही चाहिये के ईश्वर, जीव, जगत्, मोक्ष जैसे प्रश्नोके सम्बन्ध जैन आचार्योने ज्या कहा है। विशेष और विस्तृत अध्ययनके लिए तो बड़े ग्रंथोंको देखना ही होगा परन्तु प्रारम्भिक ज्ञानके लिए यह छोटी-सी पुस्तक बहुत उपयोगी है। जैन दर्शन जगत्को सत्य मानता है। यह वात शाङ्कर अद्वैतवादके विरुद्ध तो है परन्तु आस्तिक विचारधारासे असगत नहीं है। उसका अनीश्वरवादी होना भी स्वत. निन्द्य नहीं है। परम आस्तिक साख्य और मीमांसा शास्त्रोंके प्रवर्तकोंको भी ईश्वरको सत्ता स्वीकार करनेमें अनावश्यक गौरवकी प्रतीति होती है। वेदको प्रमाण न माननेके । कारण जैन दर्शनकी गणना नास्तिक विचार शास्त्रोंमें है परन्तु कर्मसिद्धान्त, पुनर्जन्म, तप, योग, देवादि विग्रहोमें विश्वास जैसी कई ऐसी बातें है जो थोड़ेसे उलटफेरके साथ भारतीय आस्तिक दर्शनो तथा वौद्ध और जैन दर्शनोकी समानरूपसे सम्पत्ति है। इन सबका उद्गम एक है । आर्य जातिने अपने मूल पुरुषोसे जो आध्यात्मिक दाय पाया था उसकी पहिली अभिव्यक्ति उपनिषदोमे हुई। देशकालके भेदसे किञ्चित् नये परिधान धारण करके फिर वही वस्तु हमको महावीर और गौतमके द्वारा प्राप्त हुई।Page Navigation
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