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स्वतंत्र ग्रंथों की आपने रचना की । “संयम-प्रकाश" जैसे विशाल ग्रंथ (१० भागों) का सम्पादन किया, "सक्षिप्त सर्वार्थ सिद्धि", "प्रवचन प्रकाश", "अहत्प्रवचन" आदि सग्रह ग्रंथों को निवद्ध किया, कइयों के अनुवाद किये । कई पत्र पत्रिकामो का सम्पादन किया। सन् १९४७ से तो जीवन पर्यन्त वरावर वीरवारणी पत्रिका का, सम्पादन करते रहे और सम्पादकीय टिप्परिणयों द्वारा मौलिक और प्रेरणाप्रद साहित्य प्रदान किया । इसके पूर्व "जैन दर्शन", जैन बन्धु आदि पत्रों का सम्पादन किया। आप पर सरस्वती का वरद हस्त था। आपकी योग्यता अद्भ त थी। प्राचार्य एव एम ए. के. छात्रो को आप वखूबी पढाते थे । कई शोध छात्रों को विषय की तैयारी आप कराते थे । घरेलू, सामाजिक कई झगडे आप निपटाते-देश व समाज में व्याप्त बुराइयो का डटकर विरोध करते थे। विद्यार्थियों और असहायों के वे सब कुछ थे। इस तरह आप चहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आपने यह 'जैन दर्शनसार' ग्रंथ रचकर एक बहुत बडी पावश्यकता की पूर्ति की है।
छात्रों की माग थी और आपने स्वयं भी यह महसूस किया था कि 'जैन दर्शनसार' का हिन्दी अनुवाद हो जाय तो छात्रों को सहूलियत हो । द्वितीय संस्करण के समय यह चर्चा चली। कुछ पृष्ठों का मैंने अनुवाद भी किया, किन्तु पुस्तक छपाने की जल्दी थी-अनुवाद इतना जल्दी न हो सका, अतः द्वितीय- सस्करण जैसा का तैसा ही छपा और हिन्दी अनुवाद की बात भी योही रह गई । अब तृतीय संस्करण हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत है। अनुवादक है गुरुवर्य प० चैनसुखदासजी के प्रमुख शिष्य प० मिलापचन्दजी शास्त्री, न्यायतीर्थ । आप दर्शन के अच्छे विद्वान्
और मफल प्रवक्ता हैं । यह अनुवाद सरल और सुगम्य है। इससे छात्रो को विपक्ष के समझने मे जहा सहुलियत होगी,