Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
Publisher: B L Nyayatirth

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Page 9
________________ · तृतीय संस्करण जयपुर जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् श्रद्धे यगुरुवारिकाप.चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ द्वारा रचित 'जैन दर्शनसार' का यह ततीय संस्करण छपा है । पडितजी ने इस छोटे से ग्रंथ में जैन दर्शन के प्रमुख सभी सिद्धान्तो का सक्षिप्त और सरल रूप में विवेचन कर पुस्तक को बडी उपयोगी बनाया है। वे जैन दर्शन के तो अद्वितीय विद्वान् थे ही, इतर दर्शनों का भी तलस्पर्शी ज्ञान उन्हे था। उनकी प्रतिभा चतुर्मुखो था । दर्शन, न्याय, सिद्धान्त, साहित्य, व्याकरण, काव्य ग्रादि सभी विषयों मे वे पारंगत थे। उनका जन्म मारवाड़ में 'भांदवा' नामक ग्राम मे २२ जनवरी १८६६ मे हुमा । प्रारभिक शिक्षा ग्राम मे ही प्राप्त की। विशेष अध्ययन के लिए वनारस गये। वहां एक मेधावी छात्र रहे । स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में उनने संस्कृत, दर्शन, साहित्य और न्याय का अध्ययन किया। न्यायतीर्थ परीक्षा पास कर सन् १९१६ मे वापस आये और कुचामन विद्यालय में प्रधानाध्यापक बने । वहां पूरे एक युग तक सस्था का सचालन किया । सन् १९३१ में जयपुर दि० जैन सस्कृत कालेज के प्राचार्य होकर आये और तब से आजीवन २५ जनवरी सन् १९६६ तक इस पद पर कार्य करते रहे। २६ जनवरी १९६६ को आपका स्वर्गवास हुआ। इस तरह आजीवन ब्रह्मचारी रह कर सारा जीवन मां सरस्वती की उपासना में उनने व्यतीत किया। आप हिन्दी व सस्कृत में गद्य और पद्य दोनो में ही रचनाएं करते थे। "भावना विवेक", "पावन प्रवाह" आदि संस्कृत के

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