Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 9
________________ ( स ) विचार धारा भी ठीक हो सकती है किन्तु जैन आगमों ने वेदों को प्रमाण तो नहीं माना । ईश्वर की मान्यता के सम्बन्ध में तो लेखक ने स्वयं ही बड़ा सुन्दर और विचार पूर्ण प्रकाश डाला है। तथा एकात्मवाद का भी निराकरण ऐसे ढंग से किया है जो बुद्धिसङ्गत है । अतः यदि वेद और ईश्वर को न मानने वाले भी विशुद्ध हिन्दू हो सकते हैं। तो जैनों को विशुद्ध भारतीय होने के नाते हिन्दू कहलाने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । जैन दर्शन में तत्व को उत्पाद - व्यय - प्रौव्यात्मक माना है । उसका स्पष्टीकरण करते हुए लेखक ने ठीक ही लिखा है- वैदिक धर्मों ने सांकार रूप से इन तीन सत्यों को (स्थूल रूप से) स्वीकार करही लिया और बाद में ब्रह्मा, विष्णु व महेशाकार में इन परम सत्यों को तत्त्व का सर्वोपरि माना ।' यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि वैदिक धर्म ब्रह्मा की सृष्टि का उत्पादक विष्णु को संरक्षक और महेश को संहारक मानते हैं । जैन धर्म सृष्टि का कर्ता हर्ता तथा स्वयं सिद्ध किसी ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता। इसी लिये वह निरीश्वर वादी है, किन्तु वह प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति मानता है और जो आत्मा परमात्मा बनकर मुक्त हो जाते है उन्हें ही वह परमात्मा अथवा ईश्वर मानता है । अतः यथार्थ में वह निरीश्वर वादी नहीं

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