Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan Author(s): Pramuditashreeji Publisher: Pramuditashreeji View full book textPage 6
________________ व्यक्त रूप में अवश्ः पाई जाती हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पशुजगत् तक प्राणी में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा का भी योग रहता है, लेकिन मानवीय-स्तर पर तो संज्ञा के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। इस स्तर पर अव्यक्त आकांक्षाएँ चेतना के स्तर पर आकर व्यक्त हो जाती हैं। वस्तुतः, जीववृत्ति से लेकर संकल्प तक के सारे स्तरों में इच्छा के मूलतत्त्व की दृष्टि में कोई अन्तर नहीं है, चाहे वह आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की संज्ञा क्यों न हो, अंतर है तो केवल चेतना में उसके स्पष्ट बोध का। सभी प्राणीय-प्रवृत्तियों एवं आकांक्षाओं का मूल कारण संज्ञा है। वर्तमान युग में सामान्य मनोविज्ञान, शिक्षा मनोविज्ञान, बाल-मनोविज्ञान, काम-मनोविज्ञान आदि में प्राणियों की इन मूलवृत्तियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। जैनदर्शन की ये संज्ञाएं वस्तुतः आधुनिक मनोविज्ञान की मूलवृत्तियों से बहुत कुछ समानता रखती हैं जो प्राणी की आन्तरिक-मनोवृत्ति और बाह्यप्रवृत्ति -दोनों को सूचित करती हैं, जिससे प्राणी की जीवन-शैली का भलीभांति अध्ययन हो सकता है। इन संज्ञाओं के अध्ययन द्वारा मनुष्य या किसी भी प्राणी की वृत्ति-प्रवृत्तियों का पता लगाकर उसके जीवन में सुधार या परिवर्तन लाया जा सकता है, इसी दृष्टि से संज्ञाओं के अध्ययन का जीवन में बहुत महत्त्व है। स्वयं की वृत्तियों को टटोलने और तदनुसार उसमें संशोधन-परिवर्द्धन करके हम आत्मचिकित्सा कर सकते हैं। अतीत काल से आज तक प्रत्येक प्राणी अनुकूल परिवेश में रहना चाहता है। वह प्रतिकूल परिवेश का त्याग कर अनुकूल परिवेश के साथ समायोजन करता है, किन्तु यहाँ प्रश्न है - 1. वह ऐसा क्यों करता है ? 2. किस प्रकार करता है ? 3. उसका उद्देश्य क्या है ? उपर्युक्त सभी प्रवृत्तियाँ हमें एक बार यह सोचने को विवश करती है कि उनके पीछे कौन-सा तत्त्व है। वस्तुतः उनके पीछे या मूल में जो तत्त्व है, वही संज्ञा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 609