Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 23
________________ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग पक्ष भाव, ज्ञान और संकल्प के आधार पर त्रिविध बन गया है। भाव, ज्ञान और संकल्प को मम बनाने का प्रयास ही समत्व-योग की साधना है । जैन दर्शन में विषमता (दुःख) का कारण यदि हम यह कहे कि जैनधर्म के अनुसार जीवन का साध्य ममत्व का संस्थापन है. ममत्व-योग की साधना है, तो सबसे पहले हमें यह जान लेना है कि ममत्व से च्युति का कारण क्या है ? जैन दर्शन में मोहजनित आमक्ति हो आत्मा के अपने स्वकेन्द्र से च्युति का कारण है । आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि मोह-लोभ से रहित आत्मा की अवस्था सम है', अर्थात् मोह और क्षोभ से युक्त चेतना या आत्मा की अवस्था हो विषमता है। पंडित सुनलालजी का कथन है कि “शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्याग के कारण चेतन अपने महज समत्व केन्द्र का परित्याग करता है । वह जैसे-जैसे अन्य पदार्थों में रस लेता है, वैसे-वैम जीवनोपयोगी अन्य पदार्थों मे अपने अस्तित्व (ममत्व ) का आरोपण करने लगता है । यह उसका स्वयं अपने बारे मे मोह या अज्ञान है । यह अज्ञान ही उमे समत्व केन्द्र मे से च्युत करके इतर परिमित वस्तुओं मे रस लेने वाला बना देता है । यह रस (आमक्ति) ही राग द्वेष जैसे क्लेशों का प्रेरक तत्त्व है । इस तरह चित्त का वृत्तिचक्र अज्ञान एवं क्लेशो के आवरण से इतना अधिक आवृत्त एवं अवरुद्ध हो जाता है कि उसके कारण जीवन प्रवाहपतित ही बना रहता है— अज्ञान, अविद्या अथवा मोह, जिसे ज्ञेयावरण भी कहते है, चेतनगत समत्व - केन्द्र को ही आवृत्त करता है, जबकि उसमे पैदा होने वाला क्लेश चक्र, ( रागादि भाव ) बाह्य वस्तुओं में ही प्रवृत्त रहता है । सारी विषमताएँ कर्म-जनित है और कर्म राग-द्वेष जनित है । इस प्रकार आत्मा का राग-द्वेष से युक्त होना ही विषमता है, दुःख है, वेदना है और यही दुःख विषमता का कारण भी है । समत्व या राग-द्वेष से अतीत अवस्था आत्मा की स्वभाव-दशा है । राग-द्व ेष से युक्त होना विभाव-दशा है, परपरिणति है । इस प्रकार परपरिणति, विभाव या विषमभाव का कारण रागात्मकता या आसक्ति है । आमक्ति से प्राणी स्व से बाहर चेतना से भिन्न पदार्थों या परपदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति मे मुख की कल्पना करने लगता है। इस प्रकार चेतन बाह्य कारणों से अपने भीतर विचलन उत्पन्न करता है, पदार्थों के संयोग-वियोग या लाभ-अलाभ मे सुख-दुःख की कल्पना करने लगता है । चित्तवृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, सुख की खोज मे बाहर भटकती रहती है । यह बहिर्मुख चित्तवृत्ति चिन्ता, आकुलता, विक्षोभ आदि उत्पन्न करती है और चेतना या आत्मा का सन्तुलन भंग कर देती है । यही चित्त या आत्मा की विषमावस्था समग्र दोषों एवं अनैतिक आचरणों की जन्म भूमि है । विषम भाव या राग-द्व ेष होने से कामना, वासना. मूर्च्छा. अहंकार, पराश्रयता, आकुलता, निर्दयता, संकीर्णता, स्वार्थ १. प्रवचनसार, ११५ २, समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ८६

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