Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 158
________________ निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १३९ पर स्थित नही कर पाया है, उसमे लोक मगल की कामना सबसे बडा भ्रम है, छलना है। यदि व्यक्ति के जीवन में वासना का अभाव नही है, उसको लोभ की ज्वाला गान्त नही हुई है, तो उसके द्वारा किया जानेवाला लोकहित भी इनमे ही उद्भूत होगा । उसके लोकहित मे भी स्वार्थ एव वासना छिपी होगी और ऐसा लोकहित जो वैयक्तिक वामना एवं स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जा रहा है, लोकहित ही नही होगा । उपाध्याय अमरमनिजी जैन दृष्टि को स्पष्ट करते हुए लिखते है, 'व्यक्तिगत जीवन में जब तक निवृत्ति नही आ जाती तब तक समाज सेवा की प्रवत्ति विवद्ध नही हो सकती । अपने व्यक्तिगत जीवन मे मर्यादाहीन भोग और आकाक्षाओं में निर्वात्ति लेकर समाजकल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैन दर्शन का पहला नीतिधर्म है। व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिए अमत्कर्मो से पहले निवृत्ति करनी होती है। जब निवत्ति आयगी तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अन्त करण विशुद्ध होगा और तब जो भी प्रवत्ति होगी वह लोक-हिताय एव लोक-सुखाप होगी। जैन दर्शन की निवत्ति का हार्द व्यक्तिगत जीवन में निवत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवत्ति है । लोकपेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं द्रन्हों से दूर रहे, गह जैन-दर्शन की आचार महिला का पहला पाठ है ।" आत्महित ( वैयक्तिक नैतिकता ) और लोकहित ( सामाजिक नैतिकता ) परस्पर विरोधी नही है, वे नेतिक पूर्णता के दो पहलू है । आत्महित में परहित और पति में आत्महित समाहित है । आत्मकल्याण और लोककल्याण एक ही सिक्के के दो पल है, जिन्हें अलग देखा तो जा मक्ता है, अलग किया नही जा रक्ता | जैन, वद्ध गीता की विचारधाराएं आत्मकल्याण (निवति) और लोक कल्याण (प्रवनि) को अलग-अलग देखती तो है, लेकिन उन्हें एक-दूसरे से पथा- पथक् करने का प्रयाग नहीं करता । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक निवनि और प्रवृत्ति का समग्र विधेनन हमे स निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि हम निवनि या प्रवत्ति का चाहे जो अर्थ ग्रहण करे, हर स्थिति मे, एकान्त रूप से निवत्ति या प्रवृत्ति के सिद्धान्त को लेकर किसी भी आचार-दर्शन का सर्वाग विकास नही हो मकना । जैसे जीवन में आहार और निहार दोनों आवश्यक है, इतना ही नही उनके मध्य समचित गन्तुलन भी आवश्यक है, वैगे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो आवश्यक है । प० सुखलाल जी का विचार है कि समाज को भी हो वह मात्र निवृत्ति की भूल भुलैया पर जीवित नहो रह नकता और न नितात प्रवति ही गाध मकता है। यदि प्रवृत्ति चक्र का महत्व मानने वाले आखिर में प्रवृत्ति के तुफान और आंधी में फमकर मर सकते है तो यह भी सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना मात्र निवृत्ति हवाई किला बन जाती है। ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति मानव कल्याण रूपी सिक्के के दो पहलू है। दोप गलती, बुग और , श्री अमर भारती ( अप्रैल १९६६ ), पृ० २१

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