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अविद्या (मियात्य)
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जैन-दर्शन में अविद्या या मिध्यात्व केवल आत्मनिष्ठ ( Subjective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन दर्शन मे मिथ्यात्व का अर्थ है - ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान । उसमें एकांत या निरपेक्ष दृष्टि को भी मिथ्यात्व कहा गया है । तत्त्व का सापेक्ष ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है और ऐकातिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है । दूसरे, जैनदर्शन मे अकेला मिथ्यात्व ही बन्धन का कारण नही है । बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी वह सर्वस्व नही है । मिथ्यादर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से चारित्र दूषित होता है । इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है । नैतिक जीवन के लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योकि जब तक दृष्टि दूषित है ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक आचरण भी गम्यक् या नैतिक नही हो सकता । नैतिक जीवन की प्रगति के लिए प्रथम शर्त हे मिथ्यात्व से मुक्त होना । जैन- दार्शनिकों की दृष्टि मे मिथ्यात्व की पूर्व -कोटि का पता नही लगाया जा सकता, यद्यपि वह अनादि है किन्तु वह अनन्त नही । जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली मे कहे तो भव्य जीवो की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और मान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है । आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कबसे है, इसका पता नही लगाया जा सकता, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पायी जा सकती है। जैन दर्शन मे मिथ्यात्व का मूल 'कर्म' और 'कर्म' का मूल मिथ्यात्व है । एक ओर मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है । इसी प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिक का कारण सम्यक्त्व है । नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है । सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक आचरण होता है ।
बौद्ध दर्शन में अविद्या का स्वरूप - बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गयी है । अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है । जन्म-मरण की परम्परा और दुःख का मूल अविद्या है। जैसे जैन-दर्शन मे मिध्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, वैसे ही बौद्ध दर्शन मे भी अविद्या की पूर्वकोटि नही जानी जा सकती । यह एक ऐमी सत्ता है जिसे ममझना कठिन है । हमें बिना अधिक गहराई मे गये इसके अस्तित्त्व को स्वीकार कर लेना होगा । उसमें अविद्या वर्तमान जीवन की अनिवार्य पूर्ववर्ती अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नही, क्योकि जन्म-मरण की प्रक्रिया का कही आरम्भ नही खोजा जा सकता। लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्त्व से इनकार भी नही किया जा सकता । स्वयं जीवन या जन्म मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है । अविद्या का उद्भव कैसे होता है यह नही बताया जा सकता । अश्वघोष के अनुसार, "तथता" मे ही अविद्या का जन्म होता है।' डॉ० राधाकृष्णन् १. उद्धृत - जैन स्टडीज, पृ० १३३