Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 131
________________ ११२ बेन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग ४. सुख-दुःस एवं सौमनस्य-दौमनस्य से रहित असुख-अदुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान । इस प्रकार चारों ध्यान जैन-परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ उपस्थित हैं । योग-परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जन-परम्परा के समान ही लगते हैं। समापत्ति के वे चार प्रकार निम्नानुसार हैं-१. सवितर्का, २. निवितर्का, ३. सविचारा, ४. निविचारा । इस विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-साधना में जिस सम्यक् तप का विधान है, वह अन्य भारतीय आचारदर्शनों में भी सामान्यतया स्वीकृत रहा है । जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा में जिस सम्बन्ध में मत भिन्नता है वह है अनशन या उपवास तप । बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन उपवासों की लम्बी तपस्या को इतना महत्त्व नहीं देते जितना कि जैन विचारणा देती है। इसका मूल कारण यह है कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन तप की अपेक्षा योग को अधिक महत्त्व देते हैं । यद्यपि यह स्मरण रखने की बात है कि जैन दर्शन की तप-माधना योग-साधना मे भिन्न नहीं है । पतंजलि ने जिस अष्टांग योगमार्ग का उपदेश दिया वह कुछ तथ्यों को छोड़ कर जैन-विचारणा में भी उपलब्ध है। मष्टांग योग और जेन-दर्शन-योग-दर्शन में योग के आठ अंग माने गये है-१. यम, २. नियम, ३. आसन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि । इनका जैन-विचारणा से कितना साम्य है, इस पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा। १. यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं । जैन-दर्शन में ये पांचों यम पंच महाव्रत कहे गये हैं। जैन-दर्शन और योग-दर्शन में इनकी व्याख्याएं समान है। २. नियम-नियम भी पांच है-१. शौच, २. सन्तोष, ३. तप, ४. स्वाध्याय और ५. ईश्वरप्रणिधान । जैन दर्शन में ये पांचों नियम प्रसंगान्तर से मान्य हैं। जैन-दर्शन में नियम के स्थान पर योग-संग्रह का विवेचन उपलब्ध है। जैन आगम समवायांग में ३२ योग-संग्रह माने है । यथा १. अपने किये हुए पापों की गुरुजनों के पास आलोचना करना। २. किसी की आलोचना सुनकर किसी और के पास न कहना । ३. कष्ट आने पर धर्म में दृढ़ रहना । ४. किसी की सहायता की अपेक्षा न करते हुए तप करना ५. ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा का पालन करना । ६. शरीर की निष्प्रतिक्रमता । ७. पूजा आदि की आशा से रहित होकर अज्ञात तप करना । ८. लोभपरित्याग । ९. तितिक्षा-- सहन करना । १०. ऋजुता (सरलता) । ११. शुचि (सत्य-संयम) । १२. सम्यग्दृष्टि होना । १३. समाधिस्थ होना । १४. आचार का पालन करना । १५. विनयशील होना।

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