Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 146
________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२७ प्रवृत्यात्मक जीवन और है, क्योंकि यह नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का सुलभ मार्ग है, उसमे पतन की सम्भावनाओं की अल्पता है; जब कि व्यक्तिगत आधार पर गृहस्थधर्म भी श्रेष्ठ हो सकता है । जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन मे भी अनामक्त भाव से रहता है, कीचड मे रह कर भी उससे अलिप्त रहता है, वह निश्चय ही साधारण माधुओ की अपेक्षा श्रेष्ठ है । गृहस्थ के वर्ग मे साधुओं का वर्ग श्रेष्ठ होता है, लेकिन कुछ माधुओ की अपेक्षा कुछ गृहस्थ भी श्रेष्ठ होते है १ गृहस्थ के माधु के निवृत्यात्मक जीवन के प्रति जैन- दृष्टि का यही सार है । उमे न गृहस्थजीवन की प्रवृत्ति का आग्रह है और न सन्यास मार्ग की निवृत्ति का आग्रह है । उसे यदि आग्रह है तो वह अनाग्रह का ही आग्रह है, अनासक्ति का ही आग्रह है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो ही उसे स्वीकार ह-यदि वे इस अनाग्रह या अनासक्ति के लक्ष्य की यात्रा में सहायक है । गृहस्थ जीवन और सन्याम के यह बाह्य भेद उसकी दृष्टि मे उतने महत्त्वपूर्ण नही है, जितनी साधक की मन स्थिति एव उनकी अनासक्त भावना | वेशविशेष या आश्रम विशेष का ग्रहण माघना का सही अर्थ नही है । उत्तगध्ययनसूत्र मे स्पष्ट निर्देश है, 'नीवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, जीर्ण वस्त्र और मुण्डन अर्थात् सन्यास जीवन के बाह्य लक्षण दुशील की दुर्गति में रक्षा नही कर सकते । भिक्षु भी यदि दुराचारी हो तो नरक मे बच नहीं सकता । गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, गम्यक् आचरण करनेवाला दिव्य लोको को ही जाता है । गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, जो भी कपायो एव आसक्ति से निवृत्त है एवं सयम एव तप से परिवृत है, वह दिव्य स्थानो को ही प्राप्त करता है गीता का दृष्टिकोण - वैदिक आचार-दर्शन मे भी प्रवृत्ति और निवृत्ति क्रमशः गृहस्थ धर्म और सन्यास धर्म के अर्थ मे गृहीत है । इम अर्थ विवक्षा के आधार पर वैदिक परम्परा मे प्रवृत्ति और निवृत्ति का यथार्थ स्वरूप समझने का प्रयास करने पर ज्ञात होता है कि वैदिक परम्परा मूल रूप में चाहे प्रवृत्ति परक रही हो, लेकिन गीता के युग तक उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के तत्त्व समान रूप से प्रतिष्ठित हो चुके थे । परममाध्य की प्राप्ति के लिए दोनों को ही साधना का मार्ग मान लिया गया था । महाभारत शान्तिपर्व मे स्पष्ट लिखा है कि 'प्रवृत्ति लक्षण धर्म (गृहस्थ धर्म) और निवृत्ति लक्षण धर्म ( मन्याम धर्म ) यह दानों ही मार्ग वेदों में समान रूप में प्रतिष्ठित है। गीता मे श्रीकृष्ण कहने है, ' हे निष्पाप अर्जुन, पूर्व मे ही मेरे द्वारा जीवन शोधन की इन दोनों प्रणालियों का उपदेश दिया गया था। उनमे ज्ञानी या चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ज्ञानमार्ग या सन्याममार्ग का और कर्मशील व्यक्तियों के लिए १. उत्तराध्ययन, ५।२० ३. महाभारत शान्तिपर्व, २४०/६० २. वही, ५/२० - २३, २८ ४. गीता (शा), ३1३

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