Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 148
________________ निवत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२९ गोता का दृष्टिकोण समन्वयात्मक-गीता मे प्रवृत्तिप्रधान गृहस्थधर्म और निवृनिप्रधान सन्यामधर्म दोनो स्वीकृत है। गीता के अधिकार टीकासार भी इस विषय मे कमत है कि गीता में दोनों प्रकार की निष्ठा स्वीकृत है। दोनो से ही परमनाध्य की प्राप्ति सभव है। लोकमान्य तिलक लिखते है 'ये दोनो मार्ग अथवा निष्ठा ब्रह्मविद्यामलक है। दोनों में मन की निष्कामावस्था और शान्ति (ममत्तवृत्ति) एक ही प्रकार की है । इस कारण दोनों मार्गो से अन्न मे मोक्ष प्राप्त होता है। ज्ञान के पश्चात् कर्म को (अर्थात् गृहस्थ धर्म को) छोड बैठना और काम्य (आमक्तियुक्त) कर्म छोडकर निकाम कर्म (अनासक्तिपूर्वक व्यवहार) करते रहना, यही इन दोनो मे भेद है ।' दूसरी ओर आचार्य शकर ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि सन्याम का वास्तविक अर्थ विशेष परिधान को धारण कर लेना अथवा गृहस्थ कर्म का परित्याग कर देना मात्र नही है । वास्तविक मन्याम तो कर्म-फल, मकल्प, आमक्ति या वामनाओ का परित्याग करने मे है। वे कहते है कि केवल अग्निरहित, क्रियारहित पुरुध ही संन्यासी या योगी है. ऐमा नही मानना चाहिए । कर्म-फल के सकल्प का त्याग होने मे ही मन्यामित्व है, न केवल अग्निरहित और क्रियारहित (व्यक्ति) सन्यामी या योगी होता है, किन्तु जो कोई कर्म करने वाला (गृहस्थ) भी कर्मफल और आमक्ति को छोड कर अन्तःकरण की यद्धिपूर्वक कर्मयोग में स्थित है, वह भी मन्यामी और योगी है। वस्तुत गीताकार की दृष्टि मे मन्यासमार्ग और कर्ममार्ग दोनो ही परमलक्ष्य की ओर ले जाने वाले है जो एक का भी मम्यकरूप मे पालन करता है वह दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। जिस स्थान की प्राप्ति एक मन्यामी करता है, उमी स्थान की प्राप्ति एक अनासक्त गृहस्थ (कर्मयोगी) भी करता है। गीताकार का मल उपदेश न तो कर्म करने का है और न कर्म छोड़ने का है। उमका मुख्य उपदश तो आसक्ति या कामना के त्याग का है । गीताकार की दृष्टि में नैतिक जीवन का मार तो आसक्ति या फलाकाक्षा का त्याग है । जो विचारक गीता की इम मूल भावना को दृष्टि में रखकर विचार करेंगे उन्हे कर्म-सन्याम और कर्मयोग मे अविरोध ही दिखाई देगा। गीता की दृष्टि मे कर्म-संन्याम और कर्मयोग, दोनो नैतिक जीवन के बाद्य गर्गर है, नैतिकता की मूलात्मा ममत्व या निष्कामता है। यदि निष्कामता है, ममन्वयोग की साधना है, वीतरागदृष्टि है, तो कर्ममन्याम की अवस्था हो या कर्मयोग की, दोनों ही समान रूप से नैतिक आदर्श को उपलब्धि कगने है। इमफ विपरीत यदि उनका अभाव है तो कर्मयोग और कर्मसंन्याम दोनो ही अर्थशून्य है, नैतिकता की दृष्टि में उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। गीताकार का कहना है कि यदि साधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर सन्याममार्ग (कममन्याम) को अपनाता है तो उसे यह १. गीतारहस्य, पृ० ३५८। २. गीता (शा०), ६१ ३. वही, ६ पूर्वभूमिका ४. वही, ५४ ५. वही ५५

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