Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 152
________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग और पूजा-मस्कार (अहंकार तुष्टि के प्रपामों) का त्याग कर दिया है उन्होंने राब-कुछ त्याग दिया है। ऐसे ही लोग मोक्षमार्ग में स्थिर रह सके हैं।'' 'बुद्धिमान् पुरुषों मे मैने सुना है कि मुख-शोलता का त्याग करके. कामनाओं को शान्त करके निष्काम होना ही वीर का वीरत्व है।"२ 'इमलिए मायक शब्द-स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहे और निन्दित कर्म का आचरण नहीं करे, यहा धर्म-सिद्धान्त का सार है। शेष मभी बातें धर्म सिद्धान्त के बाहर है ।'3 फिर भा उपर्यक्त वैराग्यवादी तथ्यों का अर्थ देह-दण्डन या आत्म-पोड न नही है। जैन-वैगग्यवाद देह-दण्डन की उन सब प्रणारियों को, जो वैराग्य के मही अर्थों में दूर है, कतः स्वीकार नहीं करता । जैन आचार-दर्शन में मावना का महा अर्थ वासना-क्षय है, अनासक्त दृष्टि का विकाम है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है । उमकी दृष्टि मे वैराग्य अन्तर की वस्तु है, उसे अन्तर मे जागृत होना चाहिए । केवल शरीर-यंत्रणा या देहदण्डन का जैन-माधना में कोई मूल्य नही है। मूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भले ही नग्नावस्था मे फिरे या मास के अन्त में एक बार भोजन करे, लेकिन यदि वह माया मे युक्त है तो बार-बार गर्भवास को प्राप्त होगा अर्थात् वह बन्धन में मुक्त नहीं होगा।'४ जा अज्ञानो माम-माम के अन्त में कुशाग्र जितना आहार ग्रहण करता है वह वास्तविक धर्म की मोलहवों कला के बराबर भी नहीं है।" जैनदृष्टि म्पाट कहती है कि बन्धन या पतन का कारण राग-देश युक्त दृष्टि है, मूर्छा या आमक्ति है. न कि काम-भोग । विकृति के कारण तो काम-भोग के पीछे निहित राग या आमक्ति के भाव ही है, काम-भाग म्वयं नही । उत्तराधयनमूत्र में कहा है, 'काम-भोग किमी को न तो मन्तृष्ट कर मकन है, न किमो मे विकार पैदा कर सकते है । किन्तु जो काम-भोगों में गग-द्वेप करता है वही उम राग-द्वेषजनित माह में विकृत हो जाता है।" जैन दृष्टि नैतिक आचरण के क्षेत्र में जिमका निषेध करतो है वह नो आमक्ति या राग-द्वेष के भाव है। यदि पूर्ण अनामक्त अवस्था में भोग मम्भव हो तो उमका उन भोगो में विरोध नही है, लेकिन वह यह मानती है कि भोगों के बीच रहकर भोगों को भोगत हा. उनमे अनासक्त भाव रखना असम्भव चाहे न हो लेकिन मुमाध्य भी नहीं है । अतः काम-भोगों के निषेध का माधनात्मक मूल्य अवश्य मानना होगा। माधना का लब्ध पूर्ण अनामक्ति या वीतरागावस्था है । काम-भोगों का परित्याग उमकी उपलब्धि का माधन है । यदि यह माधन माव्य में मयाजित है, साध्य की दिशा में प्रयुक्त किया जा रहा है, तब तो वह ग्राह्य है, अन्यथा अग्राह्य है । १. मूत्रकृतांग, १।३।४।१७ ३. वही. १९३५ ५. उनराध्ययन, ५४८४ २. वही, १८०१८ ४. वही, १।२।११९ ६. वही, ३२।१०१

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