Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 155
________________ १३६ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग भरा हुआ है, किन्तु दृष्टि जग माफ हो, स्वच्छ और तीक्षण हो तो उसके रंगों का विश्लेपण करन पर यह ममझा जा मकता है कि निषेधक मूत्रों की कहाँ, क्या उपयोगिता है, निवृति के स्वर में क्या मल भावनाएँ ध्वनित है ? जैन-दर्शन एक बात कहता है कि वह दग्बो कि तुम्हारी प्रवृत्ति निवृनिमलक है या नहीं। तुम दान कर रहे हो, दीन दु.खियो की मेवा के नाम पर कुछ पैमा लुटा रहे हो, किन्त दूसरी ओर यदि शोपण का कुचक्र भी चल रहा है तो इस दान और मवा का क्या अर्थ है ? मौ-मो घाव करके एक-दो घावो की मरहम-पट्टी करना मेवा का कौनमा आदर्श ह" वास्तविकता यह है कि आचरण के मूल में यदि निवृति नही है ता प्रवनि का भी कोई अर्थ नही रहता है । प्रवृत्ति के मूल मे निवृत्ति आवश्यक है । मेवा, परोपकार, दान आदि सभी नतिक विधाना के पोछे अनामक्ति एव म्बहिन के परित्याग के निषेधात्मक म्वगे का होना आवश्यक है अन्यथा नैतिक जीवन को मुमधुरता एव समम्वरता नष्ट हो जायेगी। निपंध के अभाव मे विधेय भी अर्थहीन है। विधान के पूर्व प्रस्तुत निषेध ही उम विधान का मच्ची ययार्यता प्रदान करता है। मेवा, परोपकार, दान के मभो नैतिक विवि-आदगो के पीछे सकृत हो रहे निषेधक म्वर के अभाव मे उन विधि-आदशो का मूल्य गृन्य हो जायेगा, नैतिकता की दष्टि में उनका कोई अर्थ ही नहीं रहेगा । जैन आचार-दर्शन में यत्र-तत्र-मर्वत्र जो निषेध के स्वर सुनाई देन है, उनके पीछे मूल भावना यही है। उसके अनुसार निषेध के आधार पर किया हुआ विधान ही आचरण को गमज्वल बना मकता है। निषेधात्मक नैतिक आदश नैतिक जीवन के मुन्दर चित्र निर्माण के लिए एक मुन्दर, स्वच्छ एव ममपावमि प्रदान करते है, जिस पर विधिमूलक नैतिक आदेशो की तूलिका उम नुन्दर चित्र का निर्माण कर पाती है । निषेध के द्वारा प्रस्तुत स्वच्छ एव ममपार्श्वभूमि हो विधि के चित्र को मौन्दर्य प्रदान कर सकती है। मक्षेप में जैन आचार-दशन की नैतिकता अपन बाह्य प म निषेधात्मक प्रतीत होती है, लेकिन इस निषेत्र में भी विधेयकता छिपी है। यही नही, जैनागमो मे अनेक विधिारक आदेश भो मिलने है । जैन आचार-दर्शन में विधि-निपेध का यथार्थ स्वरूप क्या है ? इमे प० सुखलालजी इन दाब्दो में व्यक्त किया ह-जैनधर्म प्रथम तो दोप विरमरण ( निषेध या त्याग ) रूप शील-निशान करता है ( अर्थात् निषेधात्मक नैतिकता प्रस्तुत करता है ), परन्तु चेतना और पुष्पार्थ ऐम नहीं है कि वे मात्र अमुक दिशा मे निष्क्रिय होकर पडे रहे। वे तो अपन विकाम को भूख दूर करने के लिए गति को दिया ढूँढने ही रहते हैं, इमलिए जैनधर्म ने निति के साथ हा शुद्ध प्रवृत्ति । विहित आचरणरूप चारित्र ) के विधान भी किये है। उसन कहा ह कि मलिन वृति में आत्मा का घात न होन दना और उमके रक्षण मे हो ( स्वदया मे ही ) बुद्धि और पुरुषार्थ का उपयोग करना चाहिए। १. श्री अमरभारतो अप्रैल १९६६ १० २०-२१ ।


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