Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 144
________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२५ वस्तुतः गृहस्थ-जीवन मे नैतिक माध्य को प्राप्त कर लेना दुःसाध्य कार्य है । वह तो आग में खेलते हुए भी हाथ को नही जलने देने के ममान है । गीता भी जब यह कहती कि कर्म-मन्याम से कर्मयोग श्रेष्ठ है तो उसका यही तात्पर्य है कि सन्याम की अपेक्षा गृहस्थ जीवन में रहते हुए जो नैतिक पूर्णता प्राप्त की जाती है वह विशेष महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि गृहस्थ-जीवन सन्यासमार्गको अपेक्षा था है। यदि दो मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर जाते हो, लेकिन उनमें से एक बाधाओ: पूर्ण हो, लम्बा हो और दूसरा मार्ग निरापद हो, कम लम्बा हो तो कोई भी पहले मार्ग को श्रेष्ठ नही कहेगा । श्रेष्ठ मार्ग तो दूमरा ही कहलायेगा। हा, बाधाओ मे परिपूण मार्ग से होकर जो माधक लक्ष्य तक पहुँचता है वह अवश्य हो विशेष योग्य वहा जायेगा। जैन और बौद्ध आचार-दर्शन यद्यपि मन्याममार्ग पर अधिक जोर देते है और दम अर्थ में निवन्यात्मक ही है, तथापि इसका यह अर्थ कदापि नही है कि गृहस्थ-जीवन में रह कर नैतिक साधना को पूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । इमका तात्पर्य इनना ही है कि सन्याममार्ग के द्वारा नैतिक साधना या आध्यात्मिक समत्व की उपलब्धि करना अधिक सुलभ है। पया सन्यास पलायन है ?-जो लोग निवृत्तिमार्ग या मन्याममार्ग को पलायनवादिता कहते है, वे भी किसी अर्थ में ठीक है । मन्याम इस अर्थ में पलायन है कि वह हमे उस सुरक्षित स्थान की ओर भाग जाने को कहता है जिसमे रहकर नैतिक विकास सुलभ होता है। वह नैतिक विकास या आध्यात्मिक समत्व की उपलब्धि के मार्ग में वासनाओं के मध्य रहकर उनमे संघर्ष करने की बात नही कहता, वरन् वासनाओं के क्षेत्र से बच निकलने की बात कहता है । संन्यासमार्ग में माधक वामनाओं के मध्य रहते हुए उनमे ऊपर नही उठता, वरन् वह उनमे बचने का ही प्रयाम करता है। वह उन सब प्रसंगों मे जहां इम आध्यात्मिक समत्व या नैतिक जीवन से विचलन की मम्भावनाओं का भय होता है, दूर रहने का ही प्रयाम करता है। वह वासनाओं से मंघर्ष का पथ नही चुनता, वग्न् वामनाओं से निगपद मार्ग को ही चुनता है । वह वासनाओं मे संघर्ष के अवमरों को कम करने का प्रयाम करता है । वह मघर्ष के प्रसंगों से दूर रहना या वचना चाहता है । इन मब अर्थो मे निश्चय ही मन्याममार्ग पलायन है, लेकिन ऐमी पलायनवादिता अनुचित तो नही कही जा मकती। क्या निगपदमार्ग चुनना अनुचित है ? क्या पतन के भय से बचने का प्रयाम करना अनुचित है ? क्या उन मंघर्षों के अवमगें को, जिनमे पतन की सम्भावना हो, टालना अनुचित है : मन्याम पलायन तो है लेकिन वह अनुचित नही है; वरन् मानवीय बुद्धि का ही परिचायक है । १. गीता, ५।२ २. स्थू लिभद्र का कोशा वेश्या के यहाँ चातुर्माम करने का मम्पूर्ण कथानक इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर देता है।

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