Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ करना हो उपबृंहण है ।' सम्यक् आचरण करनेवाले गुणीजनों की प्रशसा आदि करके उनके सम्यक् आचरण मे योग देना उपबृहण है । (६ ) स्थिरीकरण कभी-कभी ऐसे अवमर उपस्थित हो जाते है जब साधक भौतिक प्रलोभन एव माधनासम्बन्धी कठिनाइयो के कारण पथच्युत हो जाता है। अतः ऐसे अवसरों पर स्वयं को पथच्युत होने से बचाना ओर पथच्युत साधको को धर्ममार्ग मे स्थिर करना स्थिरीकरण है। मम्यग्दृष्टिमम्पन्न साधको को न केवल अपने विकास को चिन्ता करनी होती है वरन् उनका यह भी कर्तव्य है कि वह ऐसे साधको को जो धर्म-मार्ग मे विचलित या पतित हो गये है उन्हे धम-मार्ग म स्थिर करे । जैन-दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या समाज की भौतिक सेवा मच्ची सेवा नही है, मच्ची सेवा तो है उसे धर्म-मार्ग मे स्थिर करना । जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहिनावे अर्थात् उनके प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे तो भी वह उनके ऋण मे उऋण नही हो सकता। वह मातापिता के ऋण से उऋण तभी माना जाता है जब वह उन्हे मार्ग मे स्थिर करता है। दूसरे शब्दों में उनकी साधना मे महयोग देता है। अत धर्म-मार्ग से च्युत होनेवाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुनः स्थिर करना माधक का कर्तव्य माना गया है । पतन दो प्रकार का है --१. दर्शन विकृति अर्थात् दष्टिकोण को विकृति और २ चारित्र विकृति अर्थात् धर्म-मार्ग से च्यत होना । दोनो ही स्थितियो में उमे यथोचित बोध देकर स्थिर करना चाहिए। (७) वात्सल्य-धर्म का आचरण करनेवाले ममान गण-शील माथियों के प्रति प्रेमभाव रखना वान्मल्य है । आचार्य ममन्तभद्र कहते है 'स्वमियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव में प्रीति रखना और उनकी योचित मेवा-गशृपा करना वात्मन्य है। वात्मल्य मे मात्र ममर्पण और प्रपति का भाव होता है। वात्मन्य धर्म-गागन के प्रति अनुराग है । वात्मल्य का प्रतीक गाय और गोवत्म (बछडा ) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना किमी प्रतिफल की अपेक्षा के बछडे को मकट में देखकर अपने प्राणों को भी जोखिम में डाल देती है, इमी प्रकार मम्यग्दष्टि माधक का भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनो के महयोग और महकार के लिए कुछ भा उठा न रखें । वात्मल्य मंघ-धर्म या सामाजिक भावना का केन्द्रीय तत्त्व है। (८) प्रभावना-माधना के क्षेत्र में म्व-पर कल्याण की भावना होती है। जैसे पुष्प अपनी सुवास मे स्स्य भी सुवामिन होता है और दूसरो को भी सुवामित करता है वैसे ही माधक सदाचरण और ज्ञान की मौग्भ में म्वय भी मुरभित होता है और जगत् १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २७ २. वही, २८ ३. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १७

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164