Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 126
________________ सम्यक् तप तवा योग-मार्ग १०७ ४. गुरु, ५. रोगी, ६. वृद्ध मुनि, ७. सहपाठी, ८. अपने भिक्ष-संघ का सदस्य, ९ दीक्षा स्थविर और १०. लोक सम्मानित भिक्षु । इन दस की सेवा करना वैयावत्य तप है। इसके अतिरिक्त संघ (ममाज) की सेवा भी भिक्षु का कर्तव्य है। ४. स्वाध्याय-स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ आध्यात्मिक साहित्य का पठनपाठन एवं मनन आदि है । स्वाध्याय के पाँच भेद है १ वाचना : सद्ग्रन्थो का पठन एव अध्ययन करना। २. पृच्छना : उत्पन्न शंकाओ के निरसन के लिए एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वज्जनो से प्रश्नोत्तर एवं वार्तालाप करना । ३ अनुप्रेक्षा : ज्ञान की स्मृति को बनाये रखने के लिए उसका चिन्तन करना एवं उम चिन्तन के द्वारा अजित ज्ञान को विशाल करना अनुप्रेक्षा है । ४ आम्नाय (पगवर्तन) : आम्नाय या परावर्तन का अर्थ दोहगना है । अजित ज्ञान के स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है। ५ धर्मकथा : धार्मिक उपदेश करना धर्मकथा है । ५. व्युत्सर्ग-व्यत्मर्ग का अर्थ त्यागना या छोडना है । व्यत्मर्ग के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद है । बाह्य व्युत्मर्ग के चार भेद है १. कायोत्सर्ग : कुछ ममय के लिए शरीर से ममत्व को हटा लेना। २. गण-व्यत्मर्ग : माधना के निमित्त मामूहिक जीवन को छोड़कर एकात में अकेले माधना करना। ३. उपधि-व्यन्मर्ग : वस्त्र, पात्र आदि मुनि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओ का त्याग करना या उनमे कमी करना । ४ भक्तपान व्यत्मर्ग : भोजन का परित्याग । यह अनशन का ही रूप है । आभ्यन्तर व्यन्सर्ग तीन प्रकार का है१ कपाय-व्युन्मर्ग : क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायों का परित्याग करना। २ समार-व्युन्मर्ग : प्राणीमात्र के प्रति गग-द्वेप की प्रवृत्नियो को छोडकर मबके प्रति समत्वभाव रखना है। ३. कर्म-व्युन्मर्ग : आत्मा की मलिनता मन, वचन और शरीर की विविध प्रवृत्तियो को जन्म देती है। इम मलिनता के परित्याग के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों का निरोध करना। ६. ध्यान-चिन की अवस्थाओ का किमी विषय पर केन्द्रित होना ध्यान है। जैन-परम्परा मे ध्यान के चार प्रकार है-१. आतं-ध्यान, २. गेद्र ध्यान, ३. धर्मध्यान और ४. शुक्लध्यान । आनध्यान और गैद्रध्यान चित्त की दूषित प्रवृत्तियाँ है अतः

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