Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 120
________________ सम्यक तप तथा योग-भाग १०१ बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त भी बौद्ध भिक्षुओं में घुतग ( जंगल में रह कर विविध प्रकार की तपश्चर्या करनेवाले ) भिक्षुओं का काफी महत्त्व था । विसुद्धिमग्ग एवं मिलिन्दप्रश्न में ऐसे घुतंगों की प्रशंसा की गई है। दीपवंश मे कश्यप के विषय में लिखा है कि वे धुतवादियों के अगुआ थे । ( धुतवादानं अग्गो सो कस्सपो जिनसासने ) | ये सब तथ्य बौद्ध दर्शन एवं आचार मे तप का महत्त्व बताने के लिए पर्याप्त है । तप के स्वरूप का विकास जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में हमने तप के महत्त्व को देखा । लेकिन तप के स्वरूप को लेकर इन परम्पराओं मे सैद्धान्तिक अन्तर भी है । पौराणिक ग्रन्थों तथा जैन एवं बौद्ध आगमों मे तपस्या के स्वरूप का क्रमिक ऐतिहामिक विकास उपलब्ध होता है । पं० सुखलालजी तप के स्वरूप के ऐतिहासिक विकास के सम्बन्ध मे लिखते है कि 'ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप स्थूल में से सूक्ष्म की ओर क्रमशः विकसित होता गया है - तपोमार्ग का विकास होता गया और उसके स्थूल सूक्ष्म अनेक प्रकार साधको ने अपनाये । तपोमार्ग अपने विकास में चार भागों में बाँटा जा सकता है - एक अवधूत माधना, २ . तापम साधना, ३. तपस्वी माधना और ४ योग साधना । जिनमें क्रमशः तप के सूक्ष्म प्रकारों का उपयोग होता गया, तप का स्वरूप बाह्य से आभ्यन्तर बनता गया। साधना देह-दमन मे चित्तवृत्ति के निरोध की ओर बढ़ती गई ।" जैन-साधना तपस्वी एव योग-साधना का ममन्वित रूप में प्रतिनिधित्व करती है जबकि वौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन योग-साधना का प्रतिनिधित्व करते है । फिर भी वे सभी अपने विकास के मूल केन्द्र मे पूर्ण अलग नहीं है । जैन आगम आचारागसूत्र का धूत अध्ययन, बौद्ध ग्रन्थ विमुद्धिमग्ग का धूतंगनिद्देस और हिन्दू साधना की अवधूत गीता इन आचार-दर्शनों के किसी एक ही मूल केन्द्र की ओर इंगित करते है । जैन-साधना का तपस्वी मार्ग तापस-मार्ग का ही अहिमक संस्करण है । बौद्ध और जैन विचारणा में जो विचार-भेद है, उसके पीछे एक ऐतिहासिक कारण है । यदि मज्झिमनिकाय के बुद्ध के उस कथन को ऐतिहासिक मूल्य का समझा जाये तो यह प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक साधक जीवन मे बड़े कठोर तप किये थे । प० मुखलालजी लिखते है कि उस निर्देश को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है। कि अवधूत मार्ग ( तप का अत्यन्त स्थूल रूप ) में जिम प्रकार के तपोमार्ग का आचरण किया जाता था बुद्ध ने वैसे ही उग्र तप किये थे । गोशालक और महावीर तपस्वी तो थे ही, परन्तु उनकी तपश्चर्या में न तो अवधूतों को और न तापमों की तपश्चर्या का अंश था । उन्होंने बुद्ध जैसे तप-व्रतों का आचरण नही किया । बुद्ध तप की उत्कट कोटि पर पहुँचे थे, परन्तु जब उसका परिणाम उनके लिए सन्तोषप्रद नहीं आया, तब १. समदर्शी हरिभद्र, पृ० ६७ २. वही, पृ० ६७

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