Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ सम्यमान गुरु और धर्म के प्रति निष्ठा माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा का अर्थ बद्ध, संघ और धर्म के प्रति निष्ठा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में देव के रूप में अरहंत को साधना का आदर्श माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में साधना के आदर्श के रूप में बुद्ध और बुद्धत्व मान्य है। साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही धर्म के प्रति निष्ठा को आवश्यक मानते हैं। जहां तक साधना के पथ-प्रदर्शक का प्रश्न है, जनपरम्परा में पथ-प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्ध-परम्परा उसके स्थान पर संघ को स्वीकार करती है। जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन के दृष्टिकोणपरक और श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं । जबकि बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा और सम्यग्दृष्टि ये दो भिन्न तथ्य माने गये हैं । फिर भी दोनों समवेत रूप में जैन-दर्शन के सम्यग्दर्शन के अर्थ की अवधारणा को बौद्ध-दर्शन में भी प्रस्तुत कर देते हैं। ___ बौद्ध-परम्पग में सम्यग्दृष्टि का अर्थ दुःख, दुग्व के कारण, दु.ग्व निवृत्ति का मार्ग और दुःख-विमुक्ति इन चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति है । जिस प्रकार जैन-दर्शन में वह जीवादि नव तत्त्वों का श्रद्धान है, उमी प्रकार बौद्ध-दर्शन में वह चार आर्य-गत्यों का श्रद्धान है। यदि हम सम्यग्दर्शन को तन्वदृष्टि या तत्त्व-श्रद्धान से भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में लेने है तो बौद्ध-परम्परा मे उमकी तुलना श्रद्धा मे को जा मकती है। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा पाँच इन्द्रियों में प्रथम इन्द्रिय, पाँच बलों में अन्तिम बल और स्रोतापन्न अवस्था का प्रथम अंग मानी गई है। बौद्ध-परम्पग में श्रद्धा का अर्थ चित्त को प्रमादमयी अवस्था है। जब श्रद्धा चित्त में उत्पन्न होती है तो वह चित्त को प्रीति और प्रमोद में भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर देती हैं। बौद्ध-परम्पग मे श्रद्धा अन्धविश्वास नही, वग्न एक बुद्धि-सम्मत अनुभव है । यह विश्वास करना नही, वग्न् माक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न तन्व-निष्ठा है । बुद्ध एक ओर यह मानते है कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए । समग्र कालाममुन मे उन्होंने इस मविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर वे यह भी आवश्यक समझते है कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति निष्ठावान् रहे । बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से ममन्वित करके चलन है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते है कि ममीक्षा के द्वाग ही उचित प्रतीत होने पर धर्म को ग्रहण करना चाहिए ।' विवेक और ममीक्षा मदैव ही बुद्ध को स्वीकृत रहे है । बुद्ध कहते थे कि भिक्षुओं, क्या तुम शास्ता के गौरव से तो 'हो' नहीं कह रहे हो ? भिक्षओं, जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है क्या उमी को तुम कह रहे हो ? इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से ममन्वित करते है। सामान्यतया बौद्ध-दर्शन १. मज्झिमनिकाय, १५७ ____२. वहो, १।४।८ 1८

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164