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जन, बोट और मोता का सामना मार्ग
हुआ है। इसे ही भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्मविवेक कहा जाता है। अगली पंक्तियों में हम इमी भेद विज्ञान का जैन, बौद्ध और गीता के आधार पर वर्णन कर रहे हैं। __ जैन-दर्शन में भेव-विज्ञान-आचार्य कुन्दकुन्द ने भेद-विज्ञान का विवेचन इस प्रकार किया है-रूप आत्मा नही है क्योंकि वह कुछ नही जानता, अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है । वर्ण आन्मा नही है क्योंकि वह कुछ नही जानता, अतः वर्ण अन्य है और आत्मा अन्य है । गन्ध आत्मा नही है क्योंकि वह कुछ नही जानता, अतः गन्ध अन्य है और आत्मा अन्य है। रम आत्मा नही है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अतः रम अन्य है और आत्मा अन्य है। स्पर्श आत्मा नही है क्योकि वह कुछ मही जानता, अतः म्पर्श अन्य है और आत्मा अन्य है। कर्म आत्मा नहीं है क्योकि कम कुछ नही जानते, अतः कर्म अन्य है आत्मा अन्य है । अध्यवमाय आत्मा नही है क्योंकि अध्यवसाय कुछ नही जानते (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते है अतः वे स्वतः कुछ नही जानने-क्रोध के भाव को जानने वाला शायक उममे भिन्न है ), अतः अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है।' आत्मा न नारक है, न तिर्यच है, न मनुष्य है, न देव है न बालक है, न वृद्ध है, न तरुण है, न गग है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है । वह इसका कारण भी नहीं है और कर्ता भी नहीं है (नियमगार ७८-८१) । इस प्रकार अनात्म-धर्मों (गुणों) के चिन्तन के द्वारा आत्मा का अनात्म गे पार्थक्य किया जाता है । यही प्रज्ञापूर्वक आत्म-अनात्म मे किया हुआ विभेद भेद-विज्ञान कहा जाता है। इमी भेद-विज्ञान के द्वारा अनात्म के स्वरूप को जानकर उममे आत्म-बुद्धि का त्याग करना हो सम्यग्ज्ञान की साधना है।
बीड-दर्शन में भेराभ्यास-जिस प्रकार जैन-साधना में सम्यग्ज्ञान या प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग भेदाभ्यास माना गया, उसी प्रकार बौद्ध-साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है । भेदाम्यास की माधना मे जैन साधक वस्तुतः स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर म्वस्वम्प (आत्म) और परस्वरूप (अनात्म) मे भेद स्थापित करता है और अनान्म मे रही हुई आत्म-बुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपने माधना के लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति करता है । बौद्ध साधना मे भी साधक प्रज्ञा के सहारे जागतिक उपादानों (धर्म) के स्वभाव का ज्ञान कर उनके अनात्म स्वरूप मे आत्म-बुद्धि का परित्याग कर निर्वाण का लाभ करता है । अनात्म के स्वरूप का ज्ञान और उसमे आत्म-बुद्धि का परित्याग दोनों दर्शनों में साधना के अनिवार्य तत्त्व है । जिस प्रकार जैन विचारकों ने रूप, रस, वर्ण, देह, इन्द्रिय, मन, अध्यवमाय आदि को अनात्म कहा, उसी प्रकार बौद्ध-आगमों में भी देह, इन्द्रियाँ, उनके विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श तथा मन आदि को अनात्म कहा गया है और दोनों ने साधक के लिए यह स्पष्ट निर्देश किया कि वह उनमें आत्म-बुद्धि न रखे । लगभग समान शब्दों १. समयमार, ३९२-४०३