Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 59
________________ जैन, बौड और गीता का सापना मार्ग और असत् को कोई निश्चित धारणा नही रखता । यह अनिर्णय को अवस्था है । सांशयिक ज्ञान मत्य होते हुए भी मिथ्या है । नैतिक दृष्टि मे ऐमा साधक कब पथ-भ्रष्ट हो सकता है, कहा नहीं जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुयता और लक्ष्यविमुखता के मध्य हिंडोले की भाति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ गॅवाता है । गीता भी यही कहती है कि संशय की अवस्था मे लक्ष्य प्राप्त नही होता। मगयो आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है।' ५. अज्ञान-जन विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत-ग्रहण, संशय और ऐकान्तिक ज्ञान मे पथक गाना है । उपर्यक्त चागे मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते है । क्योकि इनमें ज्ञान तो उपस्थित है, लेकिन वह अयथार्थ है । इनमे ज्ञानाभाव नही, वग्न् ज्ञान की अयथार्थता है जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है । अतः वह मिथ्यात्व का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है। ज्ञान नैतिक-माधन का मब से अधिक बाधक तत्त्व है, क्योंकि ज्ञानाभाव मे व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नही हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर मकता है। शभाशुभ में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है । ऐसे अज्ञान की अवस्था में नैतिक आचरण मभव नही होता। मिथ्यात्व के २५ भेव--मिथ्यात्व के २५ भेदों का उल्लेख प्रतिक्रमणमूत्र मे है जिममे मे १० भेदो का उल्लेख स्थानागमूत्र मे ह, शेष मिथ्यात्व के भेदो का वर्णन मूलागम ग्रन्थो में यत्रतत्र बिखग हुआ मिलता है । ये २५ भेद इस प्रकार है (१) धर्म को अधर्म ममझना, (-) अपर्म को धर्म ममाना, (३) संसार (बधन) के मार्ग को मक्ति का मार्ग ममझना (6) मक्ति के मार्ग को बन्धन का मार्ग ममझना, (५) जड पदार्थो को चेतन ( जीव ) ममझना (६) जात्मतत्त्व (जीव) को जड पदार्थ (अजीव) समझना, (७) असम्यक् जाचरण करनेवालो को साधु समझना (८) सम्यक् आचरण करनेवाले को अमाघ ममझना, (२) मक्तात्मा को बद्ध मानना, (१०) गग-द्वेष से युक्त को मुक्त समझना ।२ (११) आभिग्रहिक मिथ्यात्व-परम्परागत रूप में प्राप्त धारणाओं को बिना समीक्षा के अपना लेना अथवा उममे जकडे रहना । (१२) अनाभिअहिक मिथ्यात्व-सत्य को जानते हुए भी उमे स्वीकार नही करना अथवा सभी मतों को समान मूल्य का समझना। (१३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अभिमान की रक्षा के निमित्त असत्य मान्यता को हठपूर्वक पकडे रहना। (१४) मांशयिक मिथ्यात्व-संशय प्रस्त बने रहकर सत्य का निश्चय नही कर पाना। (१५) अनाभोग मिथ्यात्व-विवेक अथवा ज्ञान क्षमता का अभाव । (१६) लौकिक मिथ्यात्व-लोक रूढ़ि मे अविचार पूर्वक बंधे रहना । (१७) लोकात्तर मिथ्यात्व-पारलौकिक उपलब्धियो के निमित्त स्वार्थवश धर्म-माधना करना । (१८) कुप्रवचन मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को ग्रहण करना । (१९) न्यून मिथ्यात्व-पूर्ण सत्य को आशिक सत्य अथवा तत्त्व स्वरूप १. गीता ४।४० २. स्थानाग १०, तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय, १११०-१२

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