Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 237
________________ तेतीसवां अध्ययन २०३ अर्थ:---अपने वक स्वभाव से विवश होकर सावध आरंभ करनेवाले को दुर्मिन समझनाचाहिये। क्योंकि वह दोनों लोकों का विनाश करता है। गुजराती भाषान्तर: પોતાના ઉદ્ધા સ્વભાવને વશ થઈ સવા વ) કાભ કરનારને શમન સમજો, કેમ કે તે બંને (એટલે આ દુનિયા અને પર) લોકોનો નાશ કરે છે. प्रस्तुत गाथा में दुमित्र की पहचान बाई गई है, जिसके जीवन में वना है, जिसके विचारों में कोई दूसरी वस्तु है तो वाणी दूसरी ही बात बोलती है और आचरण दोनों से भिन्न है । ऐसा मित्र अपने साथी के दोनों लोक विगाड़ा है। उसकी वाणी में माधुर्य है, पर हृदय में हालाहल की लहरें हैं। ऐसा व्यक्ति अपने साथी को जीवन के गंभीर क्षणों में धोत्रा देना है। परिणाम में उसका साथी संकल्प और विकल्पों से उत्तरंगा । फिर परलोक के लिये तो उसने सैयारी ही कर की है। साथी की ओर से उसे सदैव सावध कर्मों की ही प्रेरणा मिली है। आत्मा को भूलनेवाला परमात्मा को क्या बाद करेगा? और जिसका यह लोक सुन्दर नहीं है उसके लिये परलोक की सुन्दरता केवल स्वप्न है ।।। अतिर्षि बुरे मित्र से सावधान रहने की प्रेरणा दे रहे हैं । मित्रता जीवन की सबसे बड़ी कला है और मित्र जीवन का अभूल्य खजाना है। जीवन में मित्र बहुत हो सकते हैं 1 किन्तु मित्रों से सावधान रहो जो पक्षी के समान तुम्हारे फलों से लदे जीवन वृक्ष के चारों और मंडराते हैं। याद रखो उस दिन एक भी मित्र तुम्हारे पास नहीं आयमा जबकि तुम्हारे संपत्ति के फल समाप्त हो जाएंगे। इंग्लिश विचारक बोलता हैFriends are plouty wlicn your purse is ful. जब तुम्हारा बटुवा तर है तो तुम्हारे पास नियों की कोई कमी नहीं है। ऐसे मित्र संख्या में हजार भी हैं तब भी तुम्हारे संकट में एक भी साथ नहीं दे सकता । किन्तु संकट में साग दे उसे मित्र कहना मित्रता का अपमान करना है। दूसरा विचार क बोलता है The worst friend is die wo frequents you in prosperity and deserts in misfortune, सबसे निकृष्ट मित्र बह है जो अच्छे दिनों में पास आता है और गुसीबत के दिनों में त्याग देता है। "न स सखायो न ददाति सख्ये" (१०.११७,४) ऋग्वेद का वह वाक्य बोलता है वह मित्र ही क्या जो अपने सहायता नहीं देता और सबसे निकट मित्र वह है जो तुम्हारी चापलूसी करता है और तुम्हारे अवगुणों पर पर्दा डालता मित्र को है। बहेतपि ऐसे मित्रों से दूर रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। सम्मत्तणिरय धीरं सायज्जारंभवज्जकं । तं मित्तं सुटु सेवेजा उभओ लोकसुहावहं ॥ १२ ॥ सम्यक्त्त्र निरत सावध आरंभ के त्यागी ऐसे धैर्यशील मित्र का अच्छी तरह साथ करना चाहिये । उसका साथ उभयलोक में सुखप्रद है। गुजराती भाषान्तर: સમ્યકત્વરિત (જ્ઞાની), સાવધ આરંભ ત્યાગ કરનાર અને ધીરજવાળા દોસ્તને સાથે સારો સંપર્ક રાખવા જોઈ એ, કેમકે તેને સહવાસ બંને લોકોને માટે સુખપ્રદ છે. जिसके पास सम्यक्त्व का प्रकाश है ऐसा पवित्र जीवन जीनेवाला साथी यथार्थतः कल्याणप्रद साधी है। इंग्लिश विचारक के शब्दों में - Life has no blossiny like a prudent friend. १. गोभीर २, मुइ, मह।

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