Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 306
________________ ૨૭૨ इसि-भासियाई साधना का रस पचाने की कला जानी श्री भगवान महावीर ने । जब चे मुनि बनकर वन में घूम रहे थे उनसे पूछा जाता आप कोन हैं। तव जनका छोटा सा उतर होता"-मैं मिश्च हूँ"। उनके पास अपने परिचय के इतिहास की कमी नहीं थी। वे बता सकते थे" में क्षत्रिय कुंड के राजा सिद्धार्थ का पुत्र हूँ।" क्षात्रय कुण्ड के वर्तमान राजा नन्दिवर्धन का में अनुज हूं। वे यह मी कह सकते थे कि वैशाली के राजा चटक का मैं दोहिन है। आज वे गणनायक है, उनकी किस्मन मक रहा है। परिचय इतनी विस्तृत सामग्री होने पर भी उनका वहीं छोटा सा उर होता था-'में भिक्षु हूँ। यहाँ तक की गुमचर के अभियोग में वे एकबार बांध दिये गये। कुए में भी उत्तर दिये गये। फिर भी पूछा गय तुम कौन होता तब भी वही उत्तर था " मैं भिक्षु हैं " । यदि वे कह देते कि मैं महाराजा सिद्धार्थ का राजकुमार हूँ, तो एक क्षण में बन्धन मुक्त हो सकते थे, पर उन्हें आत्नविज्ञापन नहीं करना था । साधना के रस को बाहर नहीं बिखेरना था। साधक जब मिक्षाचरी के लिये जाए तब स्वयं भी अज्ञात रहे । और न उन बुटलों के विशेष परिचय में उतरे। उसे उनके इतिहास से मतलब नहीं है; वह देखे कि भोजन शुद्ध है या नहीं । शुद्ध विधिपूर्वक दिया गया शुद्ध आहार उसे प्रहण करना है और इसी रूप में मह समुदाय में विचरे। टीका-परंतु मा मां कश्चित् जानातु माचाई कंचिजानासीत्यज्ञानाज्ञातमधसमुदानिक भिक्षालब्ध चरेत् । गताः । पंचयणीमगसुद्धं जो भिक्खं एसणार एसेजा। तस्स सुलद्धालामा हणणादी विप्पमुक्कदोसस्स ॥१६॥ अर्थ:-जो साधक भिक्षु श्वान आदि पांच वनीपक से शुद्ध भिक्षा को एपणा विधि के साथ ग्रहण करना है। कर्म हनन के लिये भोजन करनेवाले अथवा निर्जीव भोजन करनेवाले दो रहित साधक के लिये लाभ सुलभ है। गुजराती भाषान्तर: જે સાધક સુત્રો વિગેરે પાંચ વનીય કથી શુદ્ધ ભિક્ષા એજણાવિધી સાથે સ્વીકાર કરે છે. કર્મનાશ માટે ભોજન કરનારા અગર નિર્જીવ ભજન કરનાર એવા એ રહિત સાધકોને માટે લાભ અત્યંત સહેલો છે. साधक पहले बताई हुई अशुद्ध आजीविकाओं को छोड़कर जीवन निर्वाह के लिये शुद्ध भोजन ग्रहण करे उसके लिये आत्मिक लाभ सुलभ है। प्रस्तुत गाथा में भोजन विधि की शुद्धि के लिये निर्देश दिया गया है। प्रस्तुत माथा और आगे आनेवाली १५ वी गाथा बारहवें अध्ययन की प्रथम द्वितीय गाथा के रूप में विस्तृत अर्थ के साथ आचुकी है। जहा कवोता य कजिल्ला य गावो चरंती इह पातडाओ। एवं मुणी गोयरियं चरेजा णो वील्वे णो विय संजलेजा ॥ १७ ॥ अर्थ:-जैसे कपोत काजिल (जंगली कबूतर) और गायें अपने प्रातः भोजन के लिये जाती हैं, गोचरी के लिये गया हुआ मुनि उसी प्रकार जाए । न अधिक बोले और इच्छित आहार की प्राप्ति न होने पर मन में जळे नहीं। गुजराती भाषान्तर: જેમ કપિલ (કબૂતર) અને ગાયો પોતાના સવારને ખોરાક શોધવા કે મેળવા માટે સવારે નિકળે છે તેવી જ રીતે ગોચરી માટે ગયેલ સાધુએ પણ તેનું જ અનુકરણ કરવું જોઈએ, વધારે ઓલવું નહી, અને મનગમતો આહાર ન મળવાને લીધે મનમાં જ સાધકે બૂલવું ન જોઈએ, साधक भिक्षाचरी में शैन्त मन से रहे । सरस पदार्थों का आकर्षण से उसे लुभाए नहीं और निरस पदार्थ उसके मन को उद्विग्न न करे । आगम में पाठ आता है असंभंतो अमुच्छिओ। असंभ्रान्त और अमूर्छित हो गोचरी करे। एवं से सिद्ध बुद्धे । गतार्थः । इति इन्द्रनाग अतिर्षि प्रोक्त एकचत्वारिंशत् अध्ययन જ १ लामालाने सहे दुकाले जीविधमरणे तदा। समो निन्दापसंसासु ता माणावमाणवे | उत्तरा अ० १६

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