Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 316
________________ “इसि-भासियाई ही देती है। हिंसा आत्मा का खभाव नहीं है। इसीलिये तो दूसरे को पेट में छुरा भोंकनेवाला भाग खडा होता है जब कि करुणा प्रेरित मानत्र उसके पेट पर पट्टी बांधता है वह हजारों के सामने खडा रह सकता है। हिंसा मन का विष है, तो अहिंमा आत्मा का अमृत है । साधक इस तत्व को समझे और हिंसा का परित्याग करे। तत्व समझकर अहिंसा का अनुपालन ही श्रेष्ठ है, अन्यथा एकेन्द्रिय भी स्थूलरूप से हिंसा नहीं करता फिर भी अहिंसक नहीं कहला सकता । अहिंसा तत्त्व को समझने वाला प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों हिंसाओं से बचेगा। आज हम प्रत्यक्ष हिंसा से बचते हैं, किन्तु परोक्ष हिंसा के द्वार कितने खुले हैं। चमकीले बुट पहननेवाला उसके लिये नारे जानेवाले पशुओं की हिंसा से बच नहीं सकता। सी प्रकार महासकों का उपभोक्ता सरोक्ष हिंगा का भागी होता है। भले ही हम मन को संतोष दे दें यह हिंसा हमारे लिये नहीं हुई है। एक कम्पनी हिंसात्मक वस्तुओं का निर्माण करती है वह निर्माण उपभोक्ताओं के लिये ही होता है, न कि अपने लिये । इस प्रकार अहिंसा की गहराइयों में जितना उतरते जाएंगे उतने ही हिंसा से दूर हटते जाएंगे। टीका:-ये प्राणिनस्ताश्च घातं च, प्राणिनां च प्रिया दया, सर्वमेतद् विज्ञाय प्राणिघातं विवर्जयेत् । गतार्षः। अहिंसा सध्वसत्ताणं सदा णिव्येयकारिका ।। अहिंसा सव्यसत्तेतु पर बंभमणि दियं ॥२०॥ अर्थः-अहिंसा समस्त प्राणियों के लिपे शान्तिदायिका है । अहिंसा समस्त प्राणियों में अतीन्द्रिय परब्रह्म है । गुजराती भाषान्तर: અહિંસા (એટલે કોઈ પણ જીવને ઘાત ન કરવો) બધાં પ્રાણિઓને (મરણનું ભય ન હોવાથી) શાન્તિ આપનારી છે. તેથી જ બધાં પ્રાણુઓમાં એક (અતીન્દ્રિય) ઇન્દ્રિયોથી ન અનુભવાય એવું બ્રહ્મ છે. अहिंसा आयात्मिक जगत का अमृत है, उसकी आनंदानुभूति अन्तरिक्ष यात्रा के आनंद से कम नहीं है। मक्खन दही का सार है, इसी प्रकार अहिंसा तत्व विचारक महान सन्तों के विचार मन्थन का मक्खन है। अहिंसा का अतीन्द्रिय ब्रह्म प्राणिमात्र में व्याप्त है। आचार्य समन्तभद्र बोलते हैं ऋषियों की कल्पना भूमि में रमनेवाला परब्रह्म अतीन्द्रिय है, उसका केवल मानम प्रत्यक्ष हो सकता है, किन्नु यह अहिंसा का ब्रह्म हम सबकी आत्माओं में बोलनेवाला ब्रह्म है और यह सरस है, सुन्दर और साकार भी है। देविदा दाणविंदा य गरिंदा जे वि विस्तुता। सव्यसत्तदयोवेतं मुणीसं पणमंति ते ॥ २१ ॥ अर्थः समस्त प्राणियों के प्रति दयायुक्त मुनीश्वर को देवेन्द्र दानवेन्द्र और ख्याति प्राप्त नरेन्द्र मी नमस्कार करते हैं। गुजराती भाषान्तर: બધાં પ્રાણિયો માટે જેના અંતઃકરણમાં દયા વસે છે તે માણસને દેવેન્દ્ર, દાનવેન્દ્ર અને પ્રસિદ્ધિ પામેલા મહાન નર પા પ્રણામ કરે છે. जिस साधक के हृदय में दया का झरना बह रहा है, देश और काल की दीवारों से ऊपर उठकर जिन्होंने आत्मा को देखा है उसके चरणों में देवेन्द्र और मानवेन्द्र श्रद्धा से झुक जाएं तो आश्चर्य न होगा। हमारी दया का स्रोत प्राणिमात्र के लिये उन्मुक्त रूप से बद्दना चाहिये। मैं और मेरेपन को उस दया के योत के बीच चटूटान नहीं बनने देना चाहिए। यह 'मेरा है, मेरी समाज का है, मेरे प्रान्त और मेरे देश का है, इसलिये वह मेरी करुणा के कण पा सकता है, अन्य नहीं। मन की ये दीवार करुया की पवित्र धारा को अशिय बना देती है; जिस मारक का चिन्तन इन दीवारों से ऊपर उठता है जिसके हृदय में करुणा का सागर लहलहा रहा है वही विश्ववन्ध हो सका है। तम्हा पाणदयटाप. तेल्लपक्षधरो जधा। पगग्गमणीभूतो दयत्थी विहरे मुणी ॥२२॥ अर्थ:-दयाची ( दयाशील) मुगि प्राणियों पर दया के लिये तेलपात्र धारक की भांति एकाग्र मन होकर बिबरे। गुजराती भाषान्तर: દયાશીલ (દયાળુ) મુનિ જીવવષે દયાને માટે તેવી જ રીતે સમતોલ ચિત્તથી વર્તે જેમ કે છલછલ તેલથી ભરેલો ઘડો માથા ઉપર મુકી ચાલનાર માણસ રસ્તામાં ન ઢોળાય એ હિસાબે) એકાગ્રચિત્ત થઈ ચાલે છે. १. पगे अया-स्थानांग सूत्र अ०१ ० १. २, सभ्चे सुह साया दुक्खपडिकूला ।

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