Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 328
________________ इसि भासियाई टीका:- सदेवगन्धर्य सतिर्यक् समानुषं जगत् ताभ्यां शाततृष्णाभ्यां कृच्छ्रे व संभूतं तृष्णापाशनिबन्धनं, के ते! उच्यते परंजनं बणे लेपो यच्च अतुनस्तापनं यत्र वेषोर्नामनं यच्च ततो युक्तं कार्यकारणमिति । युग्मम् । गतार्थः । आहारादीपडी कारो लव्यष्णुव यणाहितो । अप्पा हु तिव्वषहिस्स संजमद्वाप संजमो ॥ ४९ ॥ अर्थ:- तीव्र आग को अल्प बनाने के लिये ( क्षुधा का ) प्रतिकार के लिये किया गया आहार सर्वज्ञ वचनों में से है और वह संयम के लिए है और हितप्रद है । २९४ गुजराती भाषान्तर : ભયંકર અગ્નિને શમાવવા માટૅ( એટલે પેટની ભૂખ શાંત કરવા માટે) ખાધેલો ખુરાક સર્વને અનુમોદન આપેલી છે. તેથી દુર્દમ્ય એના ઈદ્રિયોપર કાજી મેળવવા માટે તે યોગ્ય છે તે ખરેખર હિતકારક થાય છે. पूर्व गाथा में बताया गया है। सराग आल्या की हर क्रिया बन्धन रूप होती है। पन होता है यदि क्रिया में पाप होता है तब संयमी जीवन जीनेवाला साम्रक आखिर करे क्या ? क्या उसे संयम लेते ही संधारा पचब लेना चाहिए ? पर ऐसा हो नहीं सकता । त्याग जीवन की कला सीखाता है, वह मृत्यु का वारंट लेकर नहीं आता। साधक खाता पीता भी है, किन्तु उसका भोजन शरीर के पोषण के लिये नहीं होता अपितु आत्म-विकास के लिये हैं। उसका सिद्धान्त है- जीने के लिये खाता है खाने के लिये नहीं जीता। फिर उसका भोजन क्षुधा के प्रतिकार के लिये और पेट की तीव्र आग को मन्द करने के लिये होता है। संयम की रक्षा के लिये होनेवाला भोजन सर्वेश द्वारा अनुमत है । टीका:- आत्मनो जीवस्य खलु तीनवहेः संयमार्थ संगम आहारादि प्रतीकाररूप सर्वज्ञवचनेनाऽऽख्यातः । गतार्थः । हे वा आयसं वा वि वंधणं दुक्खकारणं । महग्घस्साधि दंडस्स णिचार दुक्खसंपदा ॥ ५० ॥ अर्थः- :- बन्धन लोहे का हो या सोनेका वह दुःख का ही कारण होता है। दंड कितना मूल्य युक्त क्यों न हो उसके पड़ने पर दुःख अवश्य होता है । गुजराती भाषान्तर : અન્ધન (સાંખળ) લોઢાનું હોય કે સોનાનું છેવટમાં તે તો દુઃખનું જ કારણ બને છે. લાકડી કેટલી પણ કીમતની હોય તેનો માર પડે તો દુખ્યા વગર રહે જ નહીં, श्रृंखला की कडिया लोहे की हो या सोने की दोनों बांधने का काम करती हैं। बन्धन आखिर बन्धन ही है। धातु का परिवर्तन उसकी बंधनशक्ति में परिवर्तन नहीं कर सकता। ऐसे ही एक सोने का डंडा है किन्तु वह सोने का हैं, अतः मारने पर उस से दुःख नहीं होगा ऐसा नहीं हो सकता । इसीलिये आगम में पुण्य पाप दोनों बन्धहेतुक माने गये हैं। पुण्य सोने की शृंखला है और पाप लौहे की शृंखला; पर दोनों का कार्य है बांधना । पाप कारागृह की काली कोठरी है तो पुण्य नजरकैद है। नजरकैद में व्यक्ति महलों में रहता है और महलों के पूरे आराम उसे मिलते हैं, किन्तु उसे मुक्ति नहीं मिल सकती । पुण्ध दुनियाँ के पूरे मुख दे सकता है, किन्तु संसार की नजर कैद से मुक्ति नहीं दे सकता। मुक्ति का स्वमा शृंखला को तोड़ना चाहेगा, साधक श्रृंखला से इसलिये प्यार नहीं कर सकता कि वह सोने की है। टीका:- हेमं वा बन्धनमायसं वापि दुःखकारणमेत्र महार्ण्यस्यापि दण्डस्त्र निपाते दुःखसंपद् भवेत् ॥ असज्जमाणे दिव्यम्मि धीमता कज्जकारणं । कतारे अभिवारिता विणीयं देहधारणं ॥ ५१ ॥ अर्थः- दिव्यभूमि में अनासक्त होकर बुद्धिमान कार्य और कारण को पहचाने। कर्ता अर्थात् आत्मा का अनुसरण करके साधक देह धारण को दूर करे। गुजराती भाषान्तर : દિવ્યભૂમિ (એટલે સ્વર્ગ) ના સુખ અને ચેનમાં ડાહ્યા માણસે આસક્ત ન જ રહેવું જોઈએ, અને તેના કાર્ય તેમજ કારણની સમજણ કરી લેવી તેઈએ. पहले बताया गया है कि साधक बन्धन से मुक्त हो । बन्धन लोहे का हो या सोने का आखिर वह बन्धन ही है। अर्हत सोने के बन्धन बता रहे हैं। पुण्य का मीठा फल स्वर्ग है और भौतिक सुख से आकृष्ट मन स्वर्ग पाने के लिये आकुल रहता है । अप्रेरणा के स्वर में कह रहे हैं- साधक ! तूं भूल रहा हैं गुलाब के नीचे कांटे है तो स्वर्ग की रंगीन सुषमा के पीछे दुःख की काली छाया है। तूं दीर्घद्रष्टा वन कार्य कारण की परम्परा को पहचान। आखिर देव भी लोभ और कषाय की गठरी उठाये घूम रहे हैं। वे भी मृत्यु की छाया से बच नहीं सके हैं। अतः जैनदर्शन ने स्वर्ग को कभी महत्व नहीं दिया है। स्वर्ग के १ प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।

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