Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 323
________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन आणाकोवो जिर्णिदस्स सरण्णस्स जुतीमतो || संसारे दुषखसंबाहे दुत्तारो सञ्चदेहिणं ॥ ३७ ॥ तेलोकसारगरुअं धीमतो भासित इमं ॥ सम्म कारण फासत्ता पुणो ण घिरमतशी ॥२८॥ अर्थ-पुण्यशील द्युतिमान जिनेन्द्र देव की आज्ञा की अवहेलना इस दुःख पूर्ण संसार में सबके लिये दुःखप्रद होगी। त्रैलोक्य के सारभून महान प्रज्ञाशील महापुरुषों ने जो कहा है और जीवन के लिये सम्यक् है उसका जीवन से स्पर्श करके फिर उससे पीछे न हटे। गुजपती भाषान्तर:- પુણવાન દેદીપ્યમાન નિંદ્રદેવની આજ્ઞાની અવહેલના (અપમાન) આ દુઃખમય સંસારમાં બધાને માટે દુઃખદાયક થશે. વલોક્યના સારભૂત શ્રેષ્ઠ બુદ્ધિમાન મહાપુરૂષોએ કહ્યું છે અને જે વનયાત્રા માટે અત્યંત ઉશ્ક છે એનો જીવનને સ્પર્શ કર્યા પછી તેનાથી પાછળ ખસી જવાય નહી. वीतराग देव द्वारा निर्दिष्ट पथ जीवन शान्ति का शाश्रत पथ है । मोहातीत महापुरुष, जीवन पथ के यथार्थ दृष्टा है। हम क्या हैं हमारा स्वरूप क्या है। यह आत्मा चतुर्दिक संसार में परिभ्रमण क्यों कर रहा है? आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इन सब प्रश्नों का समाधान वीतराग देव ने मोह और पाय विजय के पवित्र संदेश में दिया है उसका अनुपालन न करके हम मोह की जाल में फंसते है और दुःख की परम्परा को निमंत्रण देते हैं। अतिर्षि बता रहे है विश्न के मारभूत अनंतज्ञानी महापुरुषों का संदेश है जो जीवन के लिये श्रेय स्वरूप है उसे ग्रहण करें 1 इन्द्रियों के लिये जो प्रिय है वह प्रेय कहलाता है । इन्द्रियो उसी ओर दौड़ती हैं, किन्तु आत्मा को विकासोन्मुस्त्र बनानेवाली प्रवृत्ति श्रेय है। साधक धेय को पहचाने और हद मनोयोग के साथ उसका पालन करे। फिर कितने भी प्रलोभन सामने आवें, कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ उरासे पीछे न हटे । मुसीबतों और प्रलोमनों को देखकर साधना से भटक जामेवाला सावक आत्मविकास नहीं कर सकता। टीका:-जिनेन्द्रस्य शरण्यस्य धुतिमतः संसारे दुःखसंबाहे सर्षदेहिना दुस्तारो भवत्याझाकोप उग्राज्ञा, तथाऽपि त्रैलोक्य सारगुरुधीमसो भाषितमिदं कायेन श्रोत्रेण सम्यक् स्पृष्ट्वा गृहीत्वा यदि वा भाषितमाशावन मस्तके गृहीत्वा न पुनस्तस्माद् विस्मेत् । टीकाकार कहते हैं -- शरण्यभूत वीतराग देव की आज्ञा कठोर होने पर भी उसका अनुपालन आवश्यक है। आज्ञा उन होने पर भी उसे सम्यक रूप से काया के द्वार अनुपा लित करे । उससे विरत न हो। पद्धचिंधो जया जोधो वम्मारूढो थिरायुधो। सीहणायं विमंचित्ता पलायंतो ण सोमती ॥ ३९ ॥ अगंधणे कुले जातो जघा णागो महाविसो। मुंचित्ता सविसं भूतो पियंतो जाति लाघवं ॥ ४० ॥ अर्थ:-राज चल चांधकर रथ में आरूढ़ स्थिरायुध योद्धा सिंहनाद करके यदि रणभूमि से पलायन करता है, तो वह शोभास्पद नहीं हो सकता: अगंधन कुल में पैदा हुआ विषधर यदि महा विष को छोड़कर पुनः उसे ग्रहण करता है तो हीनता को प्राप्त होता है। गुजराती भाषान्तर:ને રાજચિન્હયુક્ત થઈ રથ ઉપર ચઢીને સ્થિરાયુધ થએલો લૉ સિંહનાદ કર્યો પછી (રણભૂમી છોડી) જે ભાગી જાય છે તેની કીર્તિને છાજે નહીં, અગંધન કુલમાં જન્મેલ ભયકર ઝેરી નાગ ઝેરને બહાર ફેંકી દઈ જે પાછું તેને લઈ લે તો તે (સાપના વંશ) ને હીનત્વ પ્રાપ્ત થાય છે. जधा सप्पकुलोन्भूतो रमणिशं पि भोयणं! वंतं पुणो सा भुजतो घिधिकारस्त भायणं ॥ ४९ ॥ पूर्व जिणिवआणाए सल्लुशरणमेव य । . णिग्गमो य पलित्ताओ सुहिओ सुहमेव तं ॥ ४२ ॥ अर्थः-जैसे रुक्मि कुल में उत्पन्न सर्प मुन्दर भोजन कर उसे दमन कर पुनः उसको साता है तो धिक्कार का पात्र होता है, इसी प्रकार जिनेन्द्र देव की आज्ञा का यथावत् पालन करने से आत्मशल्यों का उद्धार होता है । संसार की आग से निकलकर वह सुखी होता है और यथार्थ में वही सुख है।

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