Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 325
________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन चिडिया अपने चंच में पानी लेती है बाद में वह सांचे अब सागर में कितना जल शेष स बस, विडियों के नोंच में जितना जल आता है उत्तने ये तेरे चार ज्ञान और चौदह पूर्व है। केवल ज्ञान शेष असीम जलराशि है। जब शान की संपत्ति का गर्व मन में आने लगे तब इस लघुकथा को स्मृतिपथ में ले जाना चाहिए।' गौतम स्वामी को यह उत्तर मिला है व उनके सामने हमारा ज्ञान कितना है। फिर हमारे ज्ञान की यह हालत है नैयाकरणों की सभा में तार्किक बन जाते हैं, तार्किकी की सभा में पेशाकरण बनते हैं। जहां दोनों नहीं है वह वैयाकरण और तार्किक दोनों बन जाते हैं और जहां दोनों सामने हों तो न वैयाकरण रहते हैं, न तार्किक ही। एक इंग्लिश विचारक कहता हैVen are of four kinde. 1 He who knows not and knows not be knows not, he is a fool, shun hini. He who knows not and knows he kolf not. He is simplo teach Flien; 3 He wllo knows und knows not he knows, He is asleon,-wake. him; 4 He who knows and mowy he know, he is wise follow him! १. जो जानता नहीं है और जो यह भी नहीं जानता कि वह जानता नहीं है वह मूर्ख है, उसे छोड़ दो। २. जो जानता नहीं है पर वह अपने अज्ञान को समझता है वह साधारण पुल है उसे सीखाओ। ३. जो जानता है पर उसे भान नहीं है कि वह जानता है, वह सो रहा है उसे जाग्रत करो। ४, जो जानता है और उसे ज्ञान है कि वह जानता है वह बुद्धिमान् है उसका अनुसरण करो । विकास के इमाटुक को सत्ता संपत्ति और ज्ञान सब प्रकार के अहंकार से दूर रहना चाहिए। टीका-इन्द्राशनिदीप्तो बहिर मरिन तत् कुर्युर्यत् कुर्यादास्थाद्यमान-सम्बन्धनमृदिगौरव ऋद्धीनां बहुमानः । गताः । विस गाह सरद विसं वामाणुजोजितं । सामिसं बा णदीसोय यं साताकम्म दुईकर ॥५४॥ अर्थः-विष और ग्राह-मगर आदि से व्याप्त सरोवर, विध मिश्रित नारी (विष कन्या) और मांस युक्त नदी स्रोत की भौति मुख के कर्म भी अन्त में दुःखकारक होते हैं। गुजराती भाषांतर: ઝેર અને મગર વિગેરે હિસ્ત્ર પ્રાણિઓથી વ્યાસ સરોવર અને ઝેરી નારી (વિષકન્યા), માંસયુક્ત નદીસ્રોતની જેમ સુખના કમી પણ છેવટે દુખપર્યવસાયી (દુઃખમાં જ પરિણામ થાય એવા) થાય છે. कर्म के दो प्रकार होते हैं। एक सातवेदनीय, दूसरा अतिवेदनीय । एक का विपान शुभ रूप में होता है दूसरे का अशुभ । प्राणी मुख रूप कर्म चाहता है। दुःखरूए नहीं । किन्तु कर्म चाहे सुखम्प हो या दुःखरूप उसका अन्तिम परिणाम दुःखरूप होता है। दुःख तो कटु है ही, किन्तु सुस्वरूप कर्म भी दुःख से मुक्त नहीं है। माता मरुदेवी को पूर्ण साइवेदनीय का उदय था और वे अपनी सुदीर्घ आयु में एक दिन भी अस्वस्थ नहीं हुई, फिर भी जन्म और मृत्यु का दुःख तो था ही वियोग का मनस्वाप भी कहीं नहीं गया था, अतः सम्यग्दर्शनसंपन्न साधक न अशुभ कर्म चाहे न शुभ कर्म । वह तो सभी का अन्त चाहे। अर्हतर्षि इसी कथा की सोदाहरण व्याख्या करते है-सुरम्य सरोवर को देख भीष्म के ताप से क्लान्त मानव उसमें डुबकी लगाना चाहता है, किन्तु यदि उसका पानी विष मिश्रित है अथवा उसमें भयंकर ग्राहमगर है तो उसमें प्रवेश करने का कोई साहस नहीं करता और उसकी सारी बार सुषमा असुंदर हो जाती है। अथवा विषकन्या बाहर से अनिय सुन्दरी होती है, किन्तु उसका स्पर्श प्राणापहारक होता है और जिल नदी के प्रवाह में मास के टुकड़े डाले गये हैं वहां भी मत्स्य। दि का आगमन अधिक होता है, किन्तु मांस-लोग से आई मछलियां जाल में फंस जाती है। ये सभी वस्तुएं बाहर से गुन्दरता लिये हुए रहते हैं, किन्तु अंत में इनका परिणाम प्राणघातक हो सकता है। इसी प्रकार शुभ कर्म भी अशुभ विधाक लेकर आता है। सुख की घड़ियाँ मानव को कर्तव्यभ्रष्ट बना देती हैं। कहा जाता है कि मनुष्य दुःख में पागल हो जाता है, किन्तु मनुष्य दुःख में नहीं मुख में पागल हो जाता है। मुख की अत्यधिकता उसकी विवेक ज्योति लुप्त कर देती है। दुर्योधन राबण और कोणि सुख के ही पागल थे । दुःख मानव की विवेक ज्योति को कायम रखता है। जैसे टेनीमेढी सड़क पर डायवर सावधान हो जाता है। इसी प्रकार दुःख के क्षणों में आत्मा सावधान हो जाता है। दुःख में मेरे तेरे के क्षुद्र घेरे समान होकर आत्मीयता का प्रसार होता है। जैसे रात्री के सधन अंधकार में सभी वस्तुएं एक हो जाती हैं। सुख व्यक्ति के मन में अहंकार पैदा करता है।

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