Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 309
________________ वरुण अर्हतर्षि प्रोक्त चैवालीसवाँ अध्ययन दोहिं अगेहिं उपपीलतेहिं आताजस्मण उप्पीलती रागंगेय दोसेय सेटु सम्म णियच्छति ॥ १॥ वरुणेण अरहता इसिणा चुइतं। अर्थः-राग और द्वेष की उत्पीड़ना से जिसकी आत्मा उत्पादित नहीं होती, नही सम्यक निश्चय करता है। ऐसा वम्ण अर्हनर्षि ऐमा बोले । गुजराती भाषान्तर: રાગ અને દેશની સંવેદનાથી જેનો આત્મા દુઃખી થતો નથી તે સાધક સારી રીતે નિશ્ચય કરે છે એમ વરુણ અદ્વૈતષિ બેલ્યા. राग और द्वेष उत्पीडनाओं की विषवेल के कटु फल हैं। दूसरा तो कटु हो ही पर पहले की कहवास भी कम नहीं है। वह मधुलित विष है। रागी दोष नहीं देखता है और दोषी गुण नहीं देखता । जिसके प्रति रागदृष्टि है उसके सौ सौ दोष भी हमारी अखि देखती नहीं है और जिसके प्रति द्वेष है उसके सौ गुण में से एक भी नहीं दिखाई देता। बीड़ी पीनेवाले को उसका एक भी दोष नहीं दिखाई, देता । सास को बहू का एक गुण नहीं दिखाई। देता। बेटी के हाथ का बुरा काम मा की दृष्टि में अच्छा है। जबकि बहू के अच्छे काम में भी वह कोई एब जरूर निकालेगी। राग और द्वेष से प्रेरित दृष्टि वस्तु के स्वरूप का सही मूल्यांकन नहीं कर सकती। इसीलिये कहा गया है जो राग और द्वेष से परे है बेही वस्तु का स्वरूप समझ सकते है। राग द्वेष से रहित बुद्धि ही ठीक निर्णय ले सकती है और वही निर्णय ठीक होता है जब कि हमारा मन स्वस्थ और शान्त होता है। इसीलिये एक इंग्लिश विचारक ने कहा है Never make a decision when you are down-hearted, जब तुम खिन्न मन हो तब किसी प्रकार का निर्णय न लो। क्योंकि आवेश के क्षणों में लिया हुआ निर्णय ठीक नहीं होता । वस्तु के स्वरूप को समझने के लिये या सही निर्णय लेने के लिये हमें राग द्वेष रहित होना चाहिए। प्रभु महावीर ने कहा है 'राम और द्वेष कर्म के बीज हैं । कर्म का जन्म मोह से होता है, क्योंकि मोह स्वयं भावकर्म है और भावकर्म ध्यकर्मों का प्रवेश द्वार है। द्रव्यकर्म जन्म और मृत्यु की परम्परा के मूल हैं और दुःख क्या है ? जन्म और मृत्यु के ही तो दूसरा नाम हैं।' ___वीतराग आत्मा राग और द्वेष के पास से मुक्त है। रागानुभूति की मोहक लहरें जिसकी आत्मदशा को स्वभाव स्थिति से विचलित नहीं कर सकती। एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः । प्रोफेसर शुकिंग लिखते है ४२ ३ ४ ५ अध्ययन में स्पष्टीकरण विना के प्रकरण हैं। बयालीसवाँ अध्ययन का प्रथम पद बताता है जो अल्प से बहल की ओर जाता है वह ईश्रीय रूप का आभास पाता है। वह व्यक्ति प्रेवेय पदवियों भी प्राप्त कर सकता है। इति वरुण अर्हतार्षिप्रोक्त वासलीसवाँ अध्ययन

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