Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 275
________________ बौद्ध अर्हतर्षि सातिपुत्र भाषित अडतीसवाँ अध्ययन वह सुख क्या है जिसके पीछे सारी दुनियां पागल है। खाना पीना और मौज करना जिसे इंग्लिश दुनिया Eat drink and be merriod यही मुख है तो फिर जिनके भवन आकाश से बातें कर रहे है, जिनके बंगले के सामने चार बार कारें घूम रही हैं वे दुःख के निःश्वास छोड़ते हैं। इसका मतलब हुआ सुल की सजी चाभी उनको भी नहीं मिली है। सुख के दो रूप है एक इन्द्रिय-निष्ठ दूसरा आत्म-निष्ठ । इन्द्रियों को जो प्रिय लगता है जिस ओर इन्द्रिया दोस्ती है। भोला मन उसे सुख की संज्ञा दे देता है और उसके पीछे बेहताशा भागता है। किन्तु यहां उसे क्षणिक उत्तेजना और हल्की तृप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता और उसके बाद फिर वही चिर अत:, वहीं दाड, पह) संघर्च और दुःख की अनंत परंपरा । दूसरी और आत्म-निष्ट सुख में प्रेय का नहीं श्रेय का आग्रह है। वस्तु की क्षणिक मधुरिमा में आत्मा का असीम सुख नहीं बसता वह तो रहता है अपने निज रूप की प्राप्ति में। यहां रागरहित सात्विक आनंद है जिसके पीछे न दुःख की चिनगारी है म सुख के सूर्य के वाद दुःख की रजनी आने की संभावना ही रहती है । एक इंग्लिश विचारक कहता है: The happiness of a man in this life not consist in the absence but in the mastery of his passions, इस जीवन में मनुष्य का मुख (बाहरी रूप से) वामनाओं के अभाव में नहीं; अपितु उनपर शासन करने में है। प्रस्तुत अध्ययन मानव को सुख की राही राह दिखाता है। इस अध्ययन के प्रवक्ता हैं घौद्ध अर्हतर्षि सातिपुत्र । विगत सैंतीस अध्ययनों में हम विभिन्न अतिर्षिों से परिचित हो चुके हैं। उनमें कुछ क्षत्रिय रहे हैं तो कुछ ब्राह्मण भी है। उन्होंने उस परेपरा में जन्म लिया था, किन्तु तत्व दृष्टि मिलते ही उन्होंने आईती-देशना में प्रवचन दिये थे। अब यहाँ नई परंपरा आ रही है जो कि करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में जन्मी थी उस बौद्ध परंपरा से आनेवाले सातिपुत्र अतिर्षि के विचार सूत्र यहां दिये गये हैं। प्रस्तुत सूत्र के प्रथम निबन्धक उनके प्रवचन की भूमिका के साथ उनका बुद्धेण विशेषण जोडना नहीं भूले हैं। ऐसे तो बुद्ध शब्द जैन आगमों में भी आया है किन्तु वह तीर्थकर देवों की प्रबुद्ध आत्मा का विशेषण बनकर आया है और सातिपुत्र शब्द स्वयं बौद्ध-भिक्षु के नाम सा लगता है साथ ही प्रस्तुत अध्ययन की चतुर्थ गाथा के अन्तिम चरण में एक शब्द पाता है वह भी इस कमन की पुष्टि करता है वह है यह एवं बुद्धक्षण सासण । जं सुहेण सुहं लद्धं अञ्चंतमुहमेव तं। जं दुहेण दुहं लद्धं मामे तेण समागमो ॥१॥ सातिपुत्तेण बुद्धेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ:-जिस सुख से सुख प्राप्त होता है वही आत्यंतिक सुख है । किन्तु जिस सुख से दुःख की प्राप्ति हो उससे मेरा समागम न हो । सातिपुत्र बौद्ध अर्हतर्षि ऐसा बोले। गुजराती भाषान्तर: જે સુખથી સુખનો લાભ થાય છે તે જ સાચું આત્યંતિક સુખ છે. પરંતુ જે સુખથી દુઃખની પ્રાપ્તિ થાય છે તેવા સુખને સાથે હું સંપર્કમાં ન આવ્યું. એમ સાતિપુત્ર બીજી આહુતર્ષિ લ્યા. एक सुख वह है जो आदि में मीठा है तो अन्त में भी मीठा है। सुख का एक रूप वह भी है जो पहले मीठा है फिर कड़वा बन जाता है। भौतिक पदार्थों का सुख दूसरे प्रकार का सम्व है। नह उस मल्सी का सुख है जो शहद देखती है उसका मिठास देखती है, किन्तु यह नहीं देखती कि इसमें गिरने के बाद मेरी क्या हालत होगी ।। स्थानांग सूत्र की एक चौभंगी है जिसमें बताया गया है जिसकी आदि में सुख है और अन्त में भी सुख है दूसरा जिसकी आदि में सुख है और अन्त में दुःख है। तीसरी जिसके आदि में दुःख है अन्त में तुख है जिसके आदि में भी दुःख है और अन्त में भी दुःख है । उसमें प्रथम तृतीय ग्राह्य हैं और शेष दो अग्राह्य हैं। ३१

Loading...

Page Navigation
1 ... 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334