Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 277
________________ अडतीसवाँ अध्ययन २४३ गुजराती भाषांतर : કાનથી સાંભળેલા અનેક પ્રકારના શબ્દોનો લોભ અને વાણિવને બુદ્ધિમાન સાધકે હમેશા છોડી દેવું જોઈએ. રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શ વગેરેમાં પણ સાધકે આસક્ત થવું ન જોઈએ. __प्रस्तुत गाथा में साधक को अनापक्ति भाव की प्रेरणा दी गई है । कान से शब्द टकराते हैं और टकरायेंगे मी उन्हें रोका नहीं जा सकता, किन्तु हो, शब्द टकराने के बाद ये बहुत श्रन्छे हैं मन में गुद्गुड़ी पैदा करनेवाले इन शब्दों को एक बार और सुनना चाहिये । इस आसक्ति भाव को हम रोक सकते हैं। जल में रहकर भी जल से निर्लिप रहने की कला है अनासक्ति । नदी में डूबकी लगाकर भी कोई सूखा निकल आये तब चमत्कार है । किनारे पर बैठकर ही कोई यह दावा करे कि हम सूखे है तो वह हास्यास्पद होगा । रूप रस और गंध के शुभ पर्याय हमें प्राप्त हो फिर भी वे हमारे मन के भीतर प्रवेश न पा सकें। उनकी प्राप्ति के लिये तड़प न उठे और उनके विदाई के क्षणों में पलक मीने न हों तो समझना होगा इसने अनासक्ति का पाठ सीखा है। आसक्ति हमें बांधती है वह कहती है जरा रुक जाओ, फूलों की मधुर भीठी सुवास आ रही है । अनासक्ति मुक्ति का द्वार खोलती हुई कहती है आगे बढ़ते चलो, तुम्हारे पथ में हमेश फूल खिलते रहेंगे। __ अनासक्ति योग के साथ प्रस्तुत गाथा में माधक को वाणी के दोषों से बचने की भी प्रेरणा दी गई है। अति बोलना, कठोर बोलना, असमय पर बोलना ये समी वाणी के प्रदोष है, पञ्च इसलिये दु:खी है कि वह बोल नहीं सकता । मनुष्य इसलिये दुःखी है कि वह बोल सकता और उसकी अति कर सकता है 1 एक इंग्लिश विचारक ने ठीक कहा है-The your tongue keep it with in the banks, i rapidly flowing river soon collects mud. अपनी जीभ को तुम तुम्हारे होठों के बीच बन्द रखो । क्यों कि जो नदी वेग से वहती है वह जल्दी गन्दी हो जाती है। मनुष्य ने बोलकर दुःख पाया है, पर मीन ने कगी एक दुःख पाया हो सुना नहीं गया है। अति मोलना भी एक छूत की बीमारी है। लोग उससे ही डरते हैं जिनने कि ए सके रोगी है। दूसरा एक विचारक भी कहता है -Open your mouth und purze cautiously and your stock of wealth & reputation shall ut least in repute be great. तुम अपना मूह और पर्स सावधानी से खोलो ताकि तुम्हारी संपत्ति और कीर्ति बढ़े और तुम यश्चरखी और मद्दान् बन सको। साधक आगक्ति और वाचालता दोनों बचे। टीका:- नानावर्णेषु, शब्देषु, रूपेषु, गन्धेपु, रसेपु, स्पर्शेषु, श्रोत्रातिप्राप्लेषु शदि वाक्प्रदोष वा सम्यक वर्जयेद बुद्धिमान पंडितः । गताः। पंच जागरओ सुत्ता चप्पमुक्खस्स कारणा। तस्सेष तु विणासाय पण्णे यहिज्ज संतयं ॥६॥ अर्थ:-जागृत-अप्रमत मुनि की पांचों इन्द्रिया अल्प दुःख का हेतु बनती है किन्तु प्रज्ञाशील साधक ( उनके विषय के) विनाश के लिये प्रयत्न करे । गुजराती भाषान्तर: જીગૃત, એટલે વિનયશીલ એવા મુનિની પાચે ઇન્દ્રિયો થોડાઘણા દુઃખનો હેતુ બને છે; પરંતુ બુદ્ધિમાન સાધકે (તેના) નાશ માટે કોશિશ કરવી ઘટે છે. जिराकी इन्द्रिय जागृत उसकी आत्मा सुम्म है और जिसकी आत्मा जागृत हो उसकी इन्द्रियां सुन है। जब तक वनराज सोया रहता है तबतक शृगाल उछलते हैं, मृग चौकड़ी भरते हैं किन्तु जब बनराज जागृत होता है और उसकी दहाड़ से गिरिकंदराएँ गुंजित हो उठती है तो मृग चौकड़ी भूल जाते हैं, शगाल जान लेकर झादियों में दुबक जाते हैं। ठीक इसी प्रकार जबतक आत्मा भाव-निद्रा में सोया रहता है नबतक इन्द्रियों अपने विषयों की और दोस्ती है किन्तु जिस क्षण आत्मा जागृत होता है और ज्ञान के प्रकाश को पाता है तो इन्द्रियों के मृग चौककी भरता भूल जाते हैं।

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